Monday, September 30, 2013

Virus of Good Deeds Spreads Fast - Management Funda - N Raghuraman - 30th September 2013

बहुत तेजी से फैलता है अच्छाई का वायरस

मैनेजमेंट फंडा - एन. रघुरामन


वह उस दिन काम से देर से घर लौटी थी। अमेरिका के ह्यूस्टन में स्थित उसके घर पर पिता अकेले थे। वे लंबे समय बाद भारत से बेटी के पास आए थे। बेटी के देर से आने से परेशान पिता ने उसके आते ही सवाल दागने शुरू कर दिए। देर से क्यों आई? उसने बताया कि वह ऑफिस से मोची की दुकान पर चली गई थी। अपने जूते ठीक कराने, इसलिए देरी हो गई। पिता को पता था कि अमेरिकी सड़कों पर मोची मिलना बेहद मुश्किल है। वे यह भी जानते थे कि अमेरिकी अपने टूटे-फूटे सामान को सुधरवाने के बजाय कचरे में फेंकना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें चीजें सुधरवाने के बजाय नई खरीदना सस्ता पड़ता है। उन्होंने बेटी से पूछा कि उसने जूते सुधरवाने में कितने पैसे खर्च किए? और मोची की दुकान आखिर है कहां? बेटी ने बताया कि घर से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर मोची की दुकान है। मोची ने उससे जूते सुधारने के 12 डॉलर (करीब 750 रुपए) लिए। जबकि नए जूते 10 डॉलर (करीब 625 रुपए) में आ जाते हैं। 
 
  Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 30th September 2013
बेटी ने आगे कहा, ‘एक नई जोड़ी जूते खरीदने को मतलब है एक और जानवर की बलि और यह भी कि मोची के हाथ से एक काम छीन लेना। इसीलिए उसने मोची को 12 डॉलर कमाने का एक मौका दिया।’ पिता अनुभवी बिजनेसमैन हैं। उन्होंने बेटी से कहा, ‘अगर तुम वाकई किसी की मदद करना चाहती थी तो उसे दान के तौर पर कुछ पैसे दे देती।’ लेकिन बेटी ने बहुत शांति से जवाब दिया, ‘मैं और मेरे पति जितना कमाते हैं उससे हमारी जिंदगी आराम से चल पाती है।’ यह सुनने के बाद पिता के पास कोई जवाब नहीं था। ह्यूस्टन में उनकी बेटी के घर पर किसी तरह का दिखावटी सामान नहीं था। अमेरिका की सबसे सस्ती कारों में से एक उनके घर पर थी।

किचन में उतने ही बर्तन, जितने दो लोगों के खाने-बनाने के लिए जरूरी थे। अगर कोई मेहमान आ जाता तो उन्हीं बर्तनों को धोकर फिर इस्तेमाल करना पड़ता था। बेटी के पेशे में पैसे की कमी नहीं थी। लेकिन उसके अकाउंट में बैलेंस? सिर्फ 25 डॉलर (करीब 1562 रुपए)। पिता को पता नहीं था कि उनकी बेटी हर साल अपने गांव के दो स्कूली बच्चों को अपने खर्च पर अमेरिका लाती थी। उनका पासपोर्ट बनवाने से लेकर, वीसा, एयर टिकिट, उनको अपने घर पर रुकवाना, उन्हें अपने ऑफिस ले जाना, दुनिया भर की चीजों के बारे में उन्हें जागरूक करना और उन्हें भारत वापस भेजने तक उन बच्चों का पूरा खर्च वह उठाती थी। हरेक टूर 15 दिन का होता था। इन छात्रों का चयन भारत में उसके प्रोफेसर और शिक्षक बड़ी सावधानी से करते थे। सिर्फ उन्हीं छात्रों का चयन किया जाता था जो विज्ञान में सर्वश्रेष्ठ होते थे। पिता को अपनी बेटी के इस काम का पता तब चला जब दुर्भाग्यवश 41 साल की उम्र में उनकी बेटी की एक दुर्घटना में मौत हो गई।

यह कहानी है, अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की वैज्ञानिक कल्पना चावला की। उनकी एक फरवरी 2003 को उस वक्त मौत हो गई थी जब उनका अंतरिक्ष यान-कोलंबिया धरती पर लौटते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद भी उनके साथी उनके द्वारा शुरू किए गए परोपकार के कामों को जारी रखे हुए हैं। हरियाणा में करनाल के टैगोर स्कूल से कल्पना ने पढ़ाई की थी। उस स्कूल से आज भी दो बच्चों को स्टडी टूर पर अमेरिका ले जाया जाता है। ताकि वे विज्ञान और अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़ी चीजों के बारे में जागरूक हो सकें। कल्पना के द्वारा शुरू किए और भी परोपकार के काम उनके दोस्त जारी रखे हुए हैं। इस साल की शुरुआत में ही अमेरिका की ऑडूबॉन सोसायटी को कल्पना की वसीयत के हिसाब से तीन लाख डॉलर (करीब 1,87,53,000 रु.) दिए गए हैं।

फंडा यह है कि..

अगर अच्छाई कोई वायरस है तो यह बुराई की तुलना में तेजी से फैलता है। ईमानदारी से शुरू किए गए अच्छे काम आपके इस दुनिया से जाने के बाद भी जारी रहते हैं।


 





















 Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 30th September 2013

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