फिल्म शायर इरशाद कामिल 'पहल' में
परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे
इरशाद कामिल इस समय सिनेमा के सितारे गीतकार हैं और इम्तियाज अली की 'रॉकस्टार' के गीतों ने इस विधा में नए विचार का प्रतिनिधित्व किया। रणबीर कपूर के विलक्षण अभिनय तथा इरशाद के गीतों के कारण यह फिल्म लंबे समय तक याद रहेगी।
हिन्दुस्तानी सिनेमा में प्रतिभाशाली गीतकारों की लंबी परम्परा रही है जिनमें जोश मलीहाबादी, साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, शकील, मजरूह सुल्तानपुरी, नीरज, हसरत, आनंद बक्षी, इंदीवर, अनजान, प्रदीप, निदा फाजली, नरेंद्र शर्मा, जावेद अख्तर, जांनिसार अख्तर इत्यादि रहे हैं और इसी परम्परा के वर्तमान में इरशाद बढिय़ा काम कर रहे हैं।
Source: Film Lyricist Irshad Kamil in "Pehel" - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 1st July 2014
पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी में एमए किया है और उनकी मातृभाषा उर्दू है तथा अंग्रेजी पर भी उनका अधिकार है। दरअसल भाषाओं की जानकारी या शैक्षणिक योग्यता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है सीने में एक जलन, एक आग और मौजूदा सांस्कृतिक शून्य तथा प्रतिक्रियावादी ताकतों के खिलाफ विद्रोह की तीव्र कामना। लंबी व सार्थक पारी खेलने वाला व्यक्ति हमेशा नए तेवर लेकर आता है। इरशाद ऐसे ही शायर हैं।
इरशाद कामिल के ये तेवर 'रॉकस्टार' में पूरे उफान से उजागर हुए हैं। 'मर्जी से जीने की भी क्या मैं तुमको अर्जी दूं मतलब कि तुम सबका मुझपे, मुझसे भी ज्यादा हक है' आगे इरशाद लिखते हैं, 'क्यों तू काटे मुझे, क्यों बांटे मुझे इस तरह, क्यों सच का सबक सिखाए, जब सच सुन भी ना पाए'।
इसी फिल्म के एक गीत का अंश है 'रंगरेजा रंग मेरा तन, मेरा मन ये ले रंगाई (मेहनताना) चाहे तन, चाहे मन' ऊपर वाले को रंगरेज कहना शायरी की परम्परा है और 'तनु वेड्स मनु' में 'रंगरेज ने खाली अफीम और पूछे रंग क्या है, रंग का कारोबार क्या है'। यह राज शेखर ने लिखा है।
'रॉकस्टार' का ही एक गीत है 'कतैया करूं, सारी रात कतैया करूं, एक तन मेरा चरखा होवे'। औरत का तन मन सूत काटने के चरखे की तरह है। तमाम उम्र पिराई होती है।
इरशाद ने 'चमेली' से गीत लेखन प्रारंभ किया था और आज वे इम्तियाज अली के प्रिय गीतकार हैं। बहरहाल उन पर आज लिखने का कारण यह है कि जबलपुर से ज्ञानरंजन द्वारा संपादित 'पहल' के ताजा अंक में उनकी आठ कविताएं प्रकाशित हुई हैं और 'पहल' में प्रकाशित होना साहित्य के क्षेत्र में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
'पहल' में प्रकाशित सामग्री ने अनेक लोगों को दृष्टि दी है और इसी अंक में स्वयं ज्ञानरंजन लिखते हैं। एक साहित्यिक पत्रिका का निकाला जाना, निखार के साथ निकाला जाना आज असंभव हो गया है।' और इसका कारण भी वे देते हैं, 'यह जो भारतीय इतिहास की सर्वाधिक घिनौनी तानाशाही हमारे दरवाजे आ गई है, यह हमारे सैकड़ों कविता संग्रहों को निरर्थक कर देगी।
इन संग्रहों को ना तानाशाह की औलादें पढ़ेंगी, न अंधकार युग की समाप्ति के बाद इनमें कुछ तत्व बचेगा और ना ही परिवर्तन कामी, क्रांति की आकांक्षा कविता प्रेमियों के लिए इसका अस्तित्व होगा।' ज्ञानरंजन की हताशा समझी जा सकती है परंतु वे तो इतिहास में अनेक देशों में लंबे समय तक तानाशाही के बाद भी साहित्य के बने रहने की बात को जानते हैं।
दरअसल आज जो जितना अधिक जानता है, उतनी ही उसकी हताशा बढ़ती है परंतु अंधकार का युग ही उच्चतम साहित्य की रचना के लिए सबसे अधिक प्रेरक युग होता है। सच्ची समानता, स्वतंत्रता और धर्म निरपेक्षता के स्वर्ण काल में तो लिखने का कुछ नहीं होता।
बहरहाल इरशाद की 'लहसुन की महक' की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं- 'मेरी नींद जल रही थी अंधेरी रात में, तुम्हारी बातों से, शिकवे गरीब की छत की तरह टपक रहे थे। कांच की खिड़कियों पर, दस्तक देती बरसात, हवा में ठंडक भर रही थी तुम्हारी बातों में दर्द की तरह, मैं खोया हुआ था, गुजरे सालों की तलाश में, जो कांच की खिड़कियों से, धूल की तरह साफ हो चुके थे, कहीं खो चुके थे।'
इसी अंक में उनकी 'उदासी की शराब' की कुछ पंक्तियां हैं, 'उदास रहकर ही कविताएं क्यों लिखी जाती हैं, अकेलापन क्यों जन्म लेता है, कवि के साथ, जीवन क्यों समझ आता है ज्यादा, कलाई में'। इसी तरह 'गर्भ में पेड़' की पंक्तियां है- 'वो जिस दुनिया का सपना देखती है मेरे साथ, उस दुनिया का, सपना देखती है मेरे साथ, उस दुनिया में ताब ही नहीं, हमें साथ देखने की .... मैं जिस दुनिया में हूं, ये मेरी सोच में नहीं समाती, वो धरती की तरह, सब सह कर भी ये दुनिया छोड़ नहीं पाती।
इरशाद फिल्म में लिखने में व्यस्त होने के बावजूद कविताओं के लिए वक्त निकाल पाते हैं, यह सुखद बात है और हम सब के लिए प्रेरणा है कि जीवन की आपाधापी और बाजार की मशीन का एक पुर्जा होने के बावजूद अपनी निजता कायम रखी जा सकती है और आशा कर सकते हैं कि किसी दिन कोई पुर्जा ही मशीन को तोड़ देगा।
Source: Film Lyricist Irshad Kamil in "Pehel" - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 1st July 2014
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