Friday, June 13, 2014

Mahesh Bhatt - Ruminating Memories - Parde Ke Peeche - Jaiprakash Chouksey - 13th June 2014

महेश भट्ट यादों की जुगाली के दौर में


परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे



कुछ दिन पूर्व महेश भट्ट की हंसल मेहता निर्देशित 'सिटी लाइट्स' का प्रदर्शन हुआ। यह फिल्म ब्रिटिश-फिलीपेनो सहयोग से बनी ''मनीला मेट्रो'' से प्रेरित थी और बाकायदा अधिकार खरीद कर बनाई गई है। इसका नायक अपने परिवार सहित रोजी रोटी की तलाश में राजस्थान से मुंबई आता है और उन्हें अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं। 

मुंबई में घर का सपना अनेक धूर्त व्यापारी दशकों से बेच रहे हैं और राजकपूर की श्री 420 में भी यह समस्या प्रस्तुत हुई थी। राजकपूर की आवारा, श्री 420 और 'जागते रहो' के नायक गांवों से रोजी रोटी की तलाश में महानगर आते हैं जो अपनी निर्मम चक्की में उनके सपने, शरीर और आत्मा पीस देता है। 


 Source: Mahesh Bhatt  - Ruminating Memories - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 13th June 2014


विमल रॉय की महान 'दो बीघा जमीन' भी इसी सत्य की फिल्म है। देव आनंद की फिल्मों में भी प्रस्तुत हुआ कि कैसे महानगर इन बेरोजगार लोगों को अपराध के कीचड़ में धकेल देता है जहां हमेशा आने के लिए मार्ग खुला मिलता है परंतु वापसी के सारे दरवाजे बंद होते हैं। उनकी 'सभ्य समाज' में वापसी के लिए तड़प और बेकरारी ही उनकी त्रासदी तय करती है। 

प्राय: प्रेम ही वह प्रेरक शक्ति है जो वापसी के लिए उनसे अथक प्रयास कराती है। दरअसल कस्बों से यह पलायन ही दिल की बस्ती कई बार उजाड़ता है और कई बार बसाता है। संस्कृतियां मिटती हैं और बनती हैं। देश के विभाजन के समय जो सामूहिक पलायन हुआ है, वह रोजी रोटी और बेहतर अवसर के लिए पलायन से अलग था। वह धार्मिक कट्टरता से जन्मे अंधे जुनून के कारण था और दोनों पक्ष समान रूप से दोषी थे। वह एक अस्वाभाविक क्रूर राजनैतिक निर्णय था। 

गांधीजी आजादी दिलाने में सबसे अधिक प्रभावी नेता रहे परंतु अपनी इस राजनैतिक विजय के क्षणों में उनकी आत्मा व्यथित थी और वे मन ही मन जानते थे कि उनका आदर्श ध्वस्त हुआ है और इसी को एक महान जीवन का 'काउंटर कलोजर' माना शिमोन द ब्हू ने और यह मुहावरा उन्होंने ज्यां पॉल सात्र से प्राप्त किया था। 

बहरहाल कस्बों से महानगर की ओर पलायन पर पांचवें दशक की इन महान फिल्मों के बाद 1978 में मुज़फ्फर अली की 'गमन' फिल्म आई थी जिसमें उत्तरप्रदेश के एक गरीब व्यक्ति के महानगर मुंबई में कष्ट का विवरण यथार्थवादी ढंग से हुआ था और इस फिल्म में जयदेव का संगीत था तथा गीत शहरयार और मखदूम मोहियुद्दीन के थे। 

मनुष्य के दर्द को इन गीतकारों ने अत्यंत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया था। गौरतलब यह बात है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा में रोजी रोटी की तलाश में हुए पलायन से उपजी कथाओं पर फिल्में प्राय: बनती रही हैं और 'सिटी लाइट्स' उसी महान श्रृंखला की एक कड़ी है और दूसरी बात यह है कि यह समस्या 1947 से 2014 तक कायम है और तमाम बदलती सरकारों ने इसके लिए कुछ नहीं किया परंतु स्वार्थी नेताओं ने क्षेत्रवाद के हंटर इन 'अप्रवासी' महानगरीय लोगों की नंगी पीठ पर हमेशा बरसाए हैं और यह सिलसिला कभी थमा नहीं है।
दक्षिण में हिंदी विरोध के बहाने वहां नौकरी के लिए बाहरी लोगों पर जुल्म शुरु हुए जिसकी प्रेरणा और प्रतिक्रिया स्वरूप मुंबई में शिव सेना का उदय हुआ परंतु दक्षिण के मुंबई आए लोगों की संख्या कम थी, अत: इसका रूख बिहार और उत्तरप्रदेश कर दिया गया। अब हम इसके तीसरे पक्ष पर आते हैं कि 1947 से 1960 तक बनी 'दो बीघा जमीन', 'आवारा', 'श्री 420', 'जागते रहो', 'आर पार', 'टैक्सी ड्रायवर' इत्यादि सभी फिल्में बाक्स ऑफिस पर सफल रहीं।
यहां तक कि 1978 में बनी 'गमन' ने भी अपनी अल्प लागत निकाल ली परंतु 2014 में महेश भट्ट और हंसल मेहता की 'सिटी लाइट्स' असफल रही जिसका कारण फिल्म की गुणवत्ता नहीं है वरन् आज के दर्शक का फोकस कुछ और है और संवेदना भी घटी है। आज का युवा दर्शक बाजार द्वारा बनाया भावना विहीन मनुष्य है। उसके मानस का एंटीना दर्द नहीं पकड़ता वह भी केवल अपराध जगत की तरह एक तरफा मार्ग है जिसमें मौज मस्ती के अतिरिक्त अन्य किसी का प्रवेश निषेध है। 


विगत दो दशकों में आदित्य चोपड़ा और महेश भट्ट कैंप ने इस दर्शक के अवचेतन को समझ लिया है और वे सितारों और बिना सितारों के सफल फिल्म बनाते रहे हैं परंतु इस बार उम्रदराज महेश भट्ट के व्यवसाय जिरह बख्तर में कोई छेद रह गया है जहां से सिटी लाइट्स घुस गई। अब अर्थ और सारांश बनाने वाले को आप यादों की जुगाली की भी आज्ञा न दें, यह कैसे संभव है?




Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey




Source: Mahesh Bhatt  - Ruminating Memories - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 13th June 2014

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