आंसू तो बाढ़ से भी ज्यादा ताकतवर होते हैं
मैनेजमेंट फंडा - एन. रघुरामन
इससे पहले 27 दिसंबर 2002 को वह वैरिफिकेशन के लिए पटना के शास्त्री नगर पुलिस स्टेशन के सब इंस्पेक्टर शम्से आलम से मिला था। आलम ने उसे एक मुंशी के पास भेज दिया था। उसका वैरीफिकेशन भी हो चुका था।
Source: Tears are Stronger Than Floods - Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 27th June 2014
अब बात करते हैं, दूसरे और तीसरे बच्चे की। क्योंकि यह तीन बच्चों से जुड़ी कहानी है। तो दूसरे बच्चे का नाम था विकास रंजन। उसके पिता प्रसाद गुप्ता समाजसेवी थे। मिठाई की दुकान भी चलाते थे। विकास और उसके पिता ने साल 2002 में ही करगिल के शहीदों के परिजनों के लिए 21,000 रुपए जुटाए थे।
यह पैसे बिहार के राज्यपाल को सौंप दिए थे। विकास ने हार्डवेयर इंजीनियरिंग का कोर्स किया था। वह अपना बिजनेस शुरू करना चाहता था। तीसरा बच्चा हिमांशु कुमार भी बहुत होशियार स्टूडेंट था। वह स्थानीय कॉलेज से बीएससी (आईटी) कर रहा था।
प्रशांत, विकास और हिमांशु तीनों अच्छे दोस्त थे। विकास और हिमांशु तो साझेदारी में बिजनेस की तैयारी कर रहे थे। बहरहाल 28 दिसंबर 2002 को तीनों बच्चों ने आरा जाने तैयारी की हुई थी। वहां विकास की चाची रहती थीं। दोपहर बाद तीन बजे उन्हें निकलना था। तीनों विकास के घर इकट्ठे हुए और वहां से सम्मेलन मार्केट (पटना) पहुंचे।
तीनों में से किसी को शायद कोई फोन करना था। एक टेलीफोन बूथ पर वे रुके और फोन किया। लेकिन बूथ मालिक कमलेश कुमार ने जो बिल उन्हें थमाया, वह ज्यादा था। इसी बात पर तीनों का उससे झगड़ा हो गया। बात इतनी बढ़ी कि दोनों तरफ से समर्थकों का झुंड एक-दूसरे के सामने आ गया।
भिड़ंत हो गई। बूथ मालिक के समर्थक बच्चों के समर्थकों पर भारी पड़ रहे थे। इससे वे भाग गए। तीनों बच्चों की जमकर पिटाई हुई। इसी बीच बूथ मालिक कमलेश ने पुलिस को भी सूचना दे दी। सूचना मिलते ही शास्त्री नगर पुलिस स्टेशन का सबइंस्पेक्टर शम्से आलम अपनी टीम के साथ वहां पहुंच गया। उसने भीड़ से इन बच्चों को बचाने के बजाय उन्हें पिटने दिया। और थोड़ी देर बाद तीनों पर अपनी पिस्तौल की पूरी मैगजीन खाली कर दी। तीनों लड़कों की वहीं मौत हो गई।
करीब 45 मिनट बाद विकास के भाई मुकेश को इस घटना की सूचना मिली। तब तक पुलिस कहानी को नया रंग दे चुकी थी। उसके मुताबिक तीनों लड़के अपराधी थे। उन्हें मुठभेड़ में मारा गया है। अगले दिन के अखबार भी पुलिस की इस झूठी कहानी को ही सुर्खियां बना रहे थे।
लेकिन इसके अगले दिन से कहानी बदल गई। कुछ जिम्मेदार अखबार वालों ने मौके पर मौजूद लोगों से बातचीत कर सच्चाई सामने ला दी। उन्होंने बताया कि मुठभेड़ फर्जी थी। मारे गए लड़के अपराधी नहीं थे। सबइंस्पेक्टर आलम ने बहादुरी अवॉर्ड की लालच में उन्हें मारा है।
मामले की जांच बैठ गई। उस वक्त की राबड़ी देवी सरकार को यह केस सीबीआई को सौंपना पड़ा। जांचकर्ताओं ने पाया कि तीन में से एक लड़के की मौत शायद दुकानदारों की पिटाई से ही हो गई थी। पुलिस उस वक्त तक मूकदर्शक बनी हुई थी। संभवत: इसी वजह से आलम ने बाकी दो लड़कों को मार दिया।
ताकि वे दुकानदारों और पुलिस के खिलाफ गवाही न दे सकें। जांच में आलम और दुकानदारों के खिलाफ पुख्ता सबूत मिले। मामला कोर्ट में पहुंचा। बीते मंगलवार को कोर्ट ने आलम को मौत की सजा सुनाई। और सात अन्य को आजीवन कारावास की।
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