मनोरंजन जगत में 'जिंदगी' की धड़कन
परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे
विदेशी सीरियल दिखाने हेतु निर्मित जी का नया चैनल 'जिंदगी' के शुभारंभ पर एक एपिसोड 'काश मैं आपकी बेटी न होती' के एक दृश्य में एक गरीब मां अपने बच्चों से प्रार्थना करती है कि आज की रात उन्हें भूख सहनी होगी क्योंकि घर में सिर्फ एक मुठ्ठी चावल है जो दिन भर मेहनत करने के बाद लौटे पिता को देना है और उन सबको यह अभिनय करना है कि वे पहले ही खा चुके हैं।
पिता के लौटने पर बच्चों ने विश्वसनीय अभिनय किया परंतु पिता का पहला निवाला लेते समय सबसे छोटे बच्चे का मुंह खुला निवाले की उम्मीद में जैसे पहले होता रहा है या कहें कि उसकी अंतडिय़ों में कुलबुलाती भूख ने उससे यह कराया और पिता समझ गया कि सब अभिनय कर रहे हैं। उसने कहा, थोड़ा ही सही परंतु सभी उसे खाएंगे।
Source: Zindagi - New Channel By Zee TV - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 25th June 2014
भोजन के बाद अपने कमरे में पिता आर्तनाद करता है कि वह कितना बेबस है कि बच्चों के साथ भोजन नहीं भूख बांटने के लिए विवश है। यह पाकिस्तान का यथार्थवादी सीरियल है और संकेत स्पष्ट है कि दोनों देशों में गरीबों के घरों में भूख ही रेंग रही है।
सरहद ने भूख और लाचारी ही बांटी है और विभाजन के पूर्व ही गरीबों की कमी नहीं थी परंतु दोनों देशों की आजादी के बाद एक और विभाजन पहले से गहरा हुआ है और इस भयावह खाई के एक ओर अभाव व भूख है तो दूसरी ओर समृद्धि है जिसका आधार शोषण है।
दशकों पूर्व 'धर्मयुग' नामक 'टाइम्स' की साहित्य पत्रिका में एक ईरानी लघु कथा प्रकाशित हुई थी जिसका सारांश यह था कि जिस घर में मौत हुई है, तीन दिन उसके घर चूल्हा नहीं जलाया जाता और दोनों वक्त का खाना पड़ोसियों के घर से आता है।
उस दौर में पड़ोस का मतलब मोहब्बत था, एक दूसरे की विपरीत के समय साथ खड़ा होना था। उस गरीब बस्ती के एक सिरे पर एक अमीर का घर है और मौत के समय उसके घर से बड़ा स्वादिष्ट भोजन आता है। कुछ दिनों के बाद परिवार की एक नन्ही बच्ची बीमार पड़ती है और अभावों से जन्मे टोटकों से उसका इलाज या कहें इलाज का प्रहसन जारी है और घर का छोटा बच्चा जिसकी नन्ही स्मृति में अमीर पड़ोसी के घर से आया स्वादिष्ट भोजन हिलोरें ले रहा है और उसी लहर में बच्चा अपने पिता से पूछता है कि उसकी बीमार बहन कब मरेगी।
बच्चा निर्मम या क्रूर नहीं है, उसे मौत का मतलब भी नहीं मालूम परंतु वह भूख को जानता है, उसी खिलौने से खेलकर तो वह बड़ा हो रहा है। कुछ कथाएं आपके हृदय को ऐसे निचोड़ती हैं जैसा धोबीघाट पर कपड़ा निचोड़ा जा रहा है या गन्ने की रस निकालने वाली मशीन पर बार-बार मरोड़कर गन्ने से आखरी बूंद रस भी निकाला जा रहा है।
एक दौर में न केवल 'टाइम्स' वरन अन्य अखबार समूहों ने भी साहित्य की पत्रिकाओं का प्रकाशन रद्द कर दिया और यही वह दौर था जब शिक्षण संस्थाओं में वाणिज्य की कक्षाएं ठसाठस भरी थी और कला विभाग में सन्नाटा छाया था। विज्ञान विभाग में कुछ चहल पहल थी परंतु 'बहार' केवल वाणिज्य विभाग में थी। समाज में परिवर्तन के सूक्ष्म संकेत ऐसे ही उभरते हैं।
आज किताबों की तमाम पांच सितारा दुकानों में पचास प्रतिशत जगह पर व्यापार प्रबंधन की किताबें रखी होती हैं, पच्चीस प्रतिशत पर बच्चों के कॉमिक्स और 'लार्ड ऑफ रिंग्स' तथा 'हैरी पोटर' के प्रभाव में लिखी तथाकथित माइथोलॉजी की किताबें होती है। छोटी सी किसी अदृश्य सी जगह में साहित्य के नाम पर लुगदी या 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' जैसी किताबें रखी होती है।
हमने रोजमर्रा के जीवन से ही अदब को बेदखल कर दिया है। जाने कहां से भोपाल के डा. शिवदत्त शुक्ला ले आए हैं कार्लोस रुझ जेफान की 'द शेडो ऑफ द विंड'। संभवत: जिसके भार ने उन्हें कमर की शल्य चिकित्सा कराने के लिए बाध्य किया हो।
बहरहाल भूख सभी देशों में कम या ज्यादा जगह घेरे है परंतु कुछ चतुर देशों ने गरीबों को दान देकर जीवित रखा है क्योंकि उनका निजाम सेवकों की फौज के बिना चल नहीं सकता। हमारे महानगरों की संगमरमरी अट्टालिकाओं के नीचे नर्क समान झोपड़पट्टियों में सेवकों की फौज ही पल रही है। भूख को सहेजकर वैसा ही रखा जाता है जैसे कुछ प्रजातियों को विलुप्त होने के खतरे के समय बड़े जतन से बचाया जाता है।
भूख को राजनैतिक सिद्धांतों के परे महज इंसानी करुणा के दायरे में देखना चाहिए, अब इस दृष्टिकोण पर आप कोई भी ठप्पा लगाएं। यह क्या कम आश्चर्यजनक है कि अधिक खाने से होने वाली मौतों की संख्या भूख से मरने वालों से कम है। भूख ऐसी अय्याशी है जो सदियों की क्रूरता से जन्मी है।
Source: Zindagi - New Channel By Zee TV - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 25th June 2014
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