कंस्ट्रक्शन बिजनेस की स्थायी लागत ही उसका भविष्य तय करेगी
मैनेजमेंट फंडा - एन. रघुरामन
हम सब अपने आसपास लगातार कुछ न कुछ निर्माण होते देखते रहते हैं। इसके बावजूद 2030 तक भारत को जितने इमारतों की जरूरत होगी उनमें 70 फीसदी का निर्माण अभी बाकी ही है। यहां तक कि उनकी अब तक योजना ही नहीं बनी है।
दूसरी तरफ विकसित देश हैं। वहां 2050 तक जितनी इमारतें चाहिए उनमें से 80 फीसदी बनकर तैयार हो चुकी हैं। यानी भारत इस मामले में बहुत पीछे है। यहां भविष्य की जरूरतों के हिसाब से घर, ऑफिस व व्यावसायिक इमारतें नहीं बन रही हैं। जो थोड़ी-बहुत इमारतें बन रही हैं, वे पर्यावरण के लिहाज से अनुकूल नहीं हैं। उल्टे वे पर्यावरण के लिए गंभीर खतरे के तौर पर सामने आ रही हैं।
Source: Future of Construction Business Depends on its Fixed Costs - Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 19th June 2014
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट (सीएसई) की ताजा रिपोर्ट में दर्ज जानकारी और आंकड़े यही सूरत पेश कर रहे हैं। इस पर भी चिंताजनक तथ्य देश के नीति निर्माताओं व शहरी डेवलपर्स के सामने हैं। ये कि इमारतें 40 फीसदी ऊर्जा, 30 फीसदी बिल्डिंग मटेरियल, 20 फीसदी पानी और इतनी ही जमीन के इस्तेमाल के लिए जिम्मेदार हैं।
यही नहीं, इमारतों से 40 फीसदी कार्बन डाइऑक्साइड, 30 फीसदी ठोस कचरा, और 20 फीसदी गंदा पानी वातावरण में पहुंच रहा है। इसका मतलब साफ है कि भविष्य में भी देश के लाखों लोगों को छत मुहैया नहीं हो पाएगी। साथ ही पर्यावरण को खतरा दिनों-दिन बढ़ता जाएगा, वह अलग। यानी दोहरी चुनौती सामने है।
पहली-लोगों को घर मुहैया कराना, जरूरत की अन्य इमारतें तैयार करना।
दूसरी-इमारतों में ही ऐसी व्यवस्था करना कि पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो।
इमारतों में पानी-बिजली की खपत कम हो, इसके लिए आम लोगों को भी जागरूक किया जाना जरूरी है ही। साथ ही इमारतों के निर्माण में ऐसे मटेरियल का इस्तेमाल किया जाना चाहिए जो उन्हें गर्म होने से रोके। इससे जाहिर तौर पर एयरकंडीशनर्स का कम इस्तेमाल होगा। बिजली की खपत भी कम होगी। इसी तरह इमारतों में जलसंरक्षण और पानी के फिर उपयोग के इंतजाम भी किए जाने चाहिए। इस सिलसिले में आर्किटेक्ट, इंजीनियर्स, इमारतों के मालिकों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है।
अंधाधुंध शहरीकरण शहरों की शक्ल बिगाड़ रहा है। साथ ही, कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ा रहा है। कैसे? यह जानने के लिए दिल्ली का उदाहरण लेते हैं।
यहां महज एक फीसदी आबादी ही पॉश इलाकों में रहती है। हालांकि मकानों और व्यावसायिक इमारतों का निर्माण शहर में चौतरफा जारी है। निर्माण की वजह से बाहरी इलाकों में रह रहे लोग लंबी दूरी तय करके अपने गंतव्य तक पहुंच पाते हैं।
शहर में एक तरफ चावड़ी बाजार जैसे घने इलाके हैं। दूसरी तरफ औरंगजेब रोड जैसे खुले-खुले। दिल्ली की तरह अन्य प्रमुख महानगरों की भी यही हालत है। यहां जमीनों और मकानों की कीमतें इतनी ज्यादा हैं कि लोग 50-75 किलोमीटर दूर जाकर घर खरीदने को मजबूर हैं।
इससे भी प्रदूषण बढ़ता है क्योंकि लोगों को सफर ज्यादा करना पड़ता है। उनकी गाडिय़ां इधर-उधर ज्यादा दौड़ती हैं। चेन्नई-मुंबई जैसे शहरों में वातावरण में नमी ज्यादा होती है। वहां कांच लगी हुई एयरटाइट इमारतों की जरूरत नहीं। खुली इमारतें होनी चाहिए, लेकिन प्रदूषण की वजह से ऐसी इमारतें बन रही हैं।
खुली इमारतों में जिनमें हवा के आने-जाने की बेहतर व्यवस्था हो, ऊर्जा की खपत स्वाभाविक रूप से कम होती है, लेकिन दुर्भाग्य से इन छोटे-छोटे तौर तरीकों पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है।
फंडा यह है कि...
अगर कन्सट्रक्शन इंडस्ट्री को टिकाऊ विकास चाहिए तो उसे स्थायी लागत कम करनी होगी। और स्थायी लागत का बड़ा हिस्सा बनी हुई इमारतों में पानी, ऊर्जा, रखरखाव आदि का खर्च होता है। यह लागत जितनी कम होगी कन्सट्रक्शन इंडस्ट्री का भविष्य उतना ही बेहतर होगा
Source: Future of Construction Business Depends on its Fixed Costs - Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 19th June 2014
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