बाल कलाकारों का यथार्थ जीवन
परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे
आउटलुक की फिल्म समीक्षक डोला मित्रा ने कौशिक गांगोली की फिल्म 'अपुर पांचाली' पर अत्यंत सारगर्भित लेख लिखा है जो मिथ बनाम सत्य के गहरे पक्ष को प्रस्तुत करता है। ऑस्कर जीतने वाली 'स्लमडॉग मिलियनेयर' में जिन बच्चों ने शूटिंग की थी, आज वे कहां हैं और विश्व प्रसिद्धि की लाइम लाइट हटने के बाद उन्होंने यथार्थ जीवन का किस तरह मुकाबला किया, क्योंकि एक बार प्रसिद्ध होने के बाद साधारण जीवन ढोना अत्यंत कठिन हो सकता है।
चार्ली चैपलिन की 'द किड' के बच्चे का भी शेष जीवन कठिनाइयों में बीता। राजकपूर की 'बूट पॉलिश' की बेबी नाज और रतन कुमार को भी ताउम्र संघर्ष करना पड़ा क्योंकि लाइम लाइट फिर लौटकर नहीं आई। इसी तरह बचपन में बहादुरी के कार्य करके राष्ट्रपति से पुरस्कार होने वाले बच्चे भी 'पल दो पल के शायर' होते है और बाद में गुमनामी के अंधेरे उन्हें लील लेते हैं।
Source: Real Lives of Child Artiste - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 11th June 2014
कई लोगों के जीवन में ऐसा ही कुछ घटित होता है। एक जमाने में इंदौर के कम्यूनिस्ट नेता होमी दाजी ने साधन सम्पन्न धनाढ्य कांग्रेसी नेता को हराया था और चुनाव प्रचार के समय अनेक युवा उनके साथ थे और यह उम्मीद की जाती थी कि मध्यप्रदेश में वामपंथी दर्शन होमी दाजी के नेतृत्व में एक ठोस आधार रचेगा। अत्यंत आदर्शवादी महान होमी दाजी ने अपने पूरे जीवन में संघर्ष किया और कभी अपने पद को टकसाल नहीं बनाया। क्या यह हुआ कि वामपंथी केंद्रीय नेताओं ने होमी दाजी का कद ज्यादा नहीं बढऩे दिया?
क्या भारत महान की मिट्टी ने वामपंथी आदर्श में भी नेताओं का श्रेष्ठी वर्ग और साधारण वर्ग बनाया गोयाकि वामपंथी आदर्श को ही उल्टा कर दिया और आज पश्चिम बंगाल और केरल के अतिरिक्त कहीं भी उनकी कोई मौजूदगी नहीं है। हर क्षेत्र में महा ठगनी लोकप्रियता ऐसा ही खेल दिखाती है।
बहरहाल डोला मित्र ने 'अपुर पांचाली' की कथा के जो संकेत दिए हैं, उनका सार यह है कि जर्मन सरकार ने प्रसिद्ध बाल कलाकारों को, जो अब उम्रदराज हो गए हैं, सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया और सत्यजीत रे फाउंडेशन के एक छात्र अरको ने अपु को खोजने की जवाबदारी ली और उसे बहुत परिश्रम करना पड़ा। यथार्थ जीवन में दस वर्षीय सुबीर बनर्जी जिसने सत्यजीत राय की सर्वकालिक महान फिल्म 'पाथेर पांचाली' में अपु का अभिनय किया था, अपने जीवन में उतना ही गरीब था जितना विभूति भूषण बंधोपाध्याय के उपन्यास में वर्णित पात्र था।
कौशिक गांगोली की यथार्थ और कल्पना के संयोग से रची फिल्म 'अपुर पांचाली' उम्रदराज सुबीर के जीवन की विभीषिका को प्रस्तुत करती है और एक हृदय विदारक दृश्य है जब वह एक साधारण व्यक्ति की तरह एक फिल्म की शूटिंग कर रहा है और फिल्मकार उसे पीछे जाने का आदेश देता है और प्रोडक्शन के लोग उसे धकियाते हैं। याद कीजिए गुरुदत्त की 'कागज के फूल' में भी एक दृश्य ऐसा ही है जिसमें अपने जमाने के सुपर प्रसिद्ध फिल्मकार को जूनियर कलाकारों की भीड़ में अपमानित किया जाता है।
सारी लोकप्रियता कितनी क्षण भंगुर है, सच तो यह है कि जीवन ही क्षण भंगुर है और सुपर-सुपर सितारे मृत्यु के सामने सभी कितने बौने और गैर महत्वपूर्ण हो जाते है। वेदव्यास की महाभारत में भी यक्ष युधिष्ठिर से इस आशय का ही प्रश्न पूछते हैं। मृत्य अटल सत्य है परंतु वह अपराजेय नहीं है, मनुष्य ही अपराजेय है और यह बात शैलेंद्र रचित ऋषिकेश मुखर्जी के 'अनाड़ी' के एक गीत से समझ में आता है 'मर कर भी याद आएंगे, किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे, जीना इसी का नाम है, हो सके तो ले किसी का दर्द उधार।' दरअसल जीवन में अच्छाई और सरल जीवन का कोई पर्याय ही नहीं है, वही एकमात्र रास्ता है।
सरल साधारण जीवन जीना ही असाधारण कार्य है और जीवन नहीं वरन् लोकप्रियता क्षणभंगुर है, लाइम लाइट अस्थायी है, सारी प्रसिद्ध और प्रशंसा एक भरम है। इन क्षणिक तालियों की गूंज को अगर आप अपना स्थायी भाव बना लें तो अकल्पनीय कष्ट भुगतना होता है। अंधेरे में रस्सी को सांप मानकर लोग मर भी जाते हैं, यह भय ही है जो विराट स्वरूप लेकर हमें खुलकर जीने नहीं देता, इसीलिए स्वतंत्रता, समानता और धर्म निरपेक्षता ही असल जीवन मूल्य है।
Source: Real Lives of Child Artiste - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 11th June 2014
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