सामान से सम्मान नहीं मिलता
मैनेजमेंट फंडा - एन. रघुरामन
पहली कहानी:
बिनीता सोरेन झारखंड में सरायकेला-खरसवान जिले के केसोसोरा गांव की आदिवासी लड़की है। वह बछेंद्री पाल से काफी प्रभावित है। बछेंद्री खुद उत्तराखंड में उत्तरकाशी के एक छोटे से गांव की रहने वाली हैं। उन्होंने सिर्फ 29 साल की उम्र में माउंट एवरेस्ट पर चढऩे में कामयाबी हासिल की। यह उपलब्धि हासिल करने वाली भारत की पहली महिला बनीं।
बिनीता भी बछेंद्री के पदचिन्हों पर चलना चाहती थीं। माउंट एवरेस्ट फतह करना चाहती थीं। लेकिन उनके सामने पैसे की दिक्कत थी। टाटा स्टील ने बिनीता की इच्छा और उसका इरादा देखा तो उसकी मदद को आगे आई। कंपनी 25 लाख रुपए खर्च करने को तैयार हो गई ताकि उसकी एवरेस्ट यात्रा सफल हो सके। यह बात है 2012 की। बिनीता ने भी निराश नहीं किया। वह एवरेस्ट की चोटी तक पहुंचने वाली दूसरी भारतीय महिला बनी।
Source: Things Don't Get You Respect - Management Funda - N Raghuraman - Dainik Bhaskar 13th June 2014
बिनीता टाटा स्टील रूरल डेवलमेंट सोसायटी (टीएसआरडीएस) में काम करती है। वह जानती थी कि एवरेस्ट फतह करने में जो सम्मान और गौरव है, वह कंपनी से मिलने वाली तनख्वाह के मुकाबले कहीं बड़ा है। बिनीता अब 27 साल की हो चुकी है। उसने एक नई चुनौती हाथ में ली है- रास्ता भटक गए युवाओं को माओवादी समूहों में शामिल होने से रोकना।
टीएसआरडीएस अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत इस काम में बिनीता की पूरी मदद कर रही है। वह गांव-गांव जाकर युवाओं की काउंसलिंग कर रही है। जिन युवाओं से वह बात करती है, वे ज्यादातर 18 से 27 साल के बीच के होते हैं। उसके साथ इस काम में पूरी टीम होती है। बिनीता उन्हें जीवन के मूल्यों के बारे में बताती है। सही रास्ते पर चलने के फायदे गिनाती है। उन्हें बताती है कि वे अपनी दम पर भी कैसे तरक्की के लिए मौकों का फायदा ले सकते हैं।
सिर्फ झारखंड ही नहीं, बिनीता ओडिशा के कई गांवों में भी अब तक सैकड़ों युवाओं की इसी तरह काउंसलिंग कर चुकी है। युवा भी उसे बड़े ध्यान से सुनते हैं। क्योंकि उन्होंने इससे पहले कभी अपनी हमउम्र किसी लड़की को इस तरह की समझदारी भरी बातें करते नहीं सुना। उसे सुनने के बाद वे सोचने और कुछ अच्छा कर गुजरने पर मजबूर होते हैं।
दूसरी कहानी :
पुणे के पांडुरंग गारसुंड 77 साल के हैं। आर्मामेंट रिसर्च एंड डेवलपमेंट एस्टेब्लिशमेंट (एआरडीई) से चीफ ड्राफ्ट्समैन की पोस्ट से रिटायर हुए हैं। ये भी एक जबरदस्त अभियान में लगे हैं। यह है-पुणे की मुला नदी की सफाई का। यह उन्होंने 2001 से शुरू किया। अब तक जारी है।
सरकारी-गैरसरकारी तौर पर कोई मदद मिले न मिले, वे रोज दिन में दो बार नदी की सफाई के अपने काम में जुटते ही हैं। और इसका मकसद नदी से लगने वाले इलाकों को, जहां तक हो सके, मच्छरों से निजात दिलाना। दरअसल, मुला नदी गर्मियों के मौसम में जलकुंभी से भर जाती है। इस कदर कि कभी-कभी तो लोग उस पर चलकर नदी के एक किनारे से दूसरे तक पहुंच जाते हैं।
इस समस्या की वजह से पुणे के कई इलाकों जैसे-औंध, दपोडी, बोपोडी, शिवाजीनगर, खड़की आदि में मच्छरों की भरमार हो जाती है। मिलिट्री इंजीनियरिंग कॉलेज के स्टूडेंट भी इस कारण से नदी में अस्थायी पुल बनाने की नियमित प्रैक्टिस नहीं कर पाते।
यह सब देख गारसुंड ने तय किया कि वे अपने दम पर इस समस्या को खत्म करने के लिए कुछ करेंगे। उन्होंने कुछ पड़ोसियों को साथ लिया और जुट गए नदी से जलकुंभी हटाने में। आंदोलन की तरह उन्होंने यह काम हाथ में लिया है। कभी लोग साथ आते हैं, कभी नहीं भी आते। लेकिन गारसुंड नहीं रुकते। लगे रहते हैं। स्वाभाविक है कि अपने इस भागीरथी प्रयास के चलते गारसुंड समाज में आज बेहद सम्मानित शख्सियत हो चुके हैं।
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