Saturday, March 8, 2014

Women Centric Film on Women's Day - Parde Ke Peeche - Jaiprakash Chouksey - 8th March 2014

महिला दिवस पर महिला केंद्रित दो फिल्में

 

परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे



आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है और शुक्रवार को प्रदर्शित तीन फिल्मों में से दो फिल्मों में केंद्रीय पात्र महिलाएं हैं। 'क्वीन' की नायिका मध्यम वर्ग की मामूली तौर पर थोड़ी-सी पढ़ी-लिखी है और एक लंबी विदेश यात्रा में स्वयं को खोजने का प्रयास कर रही है। 'गुलाब गैंग' की नायिका रज्जू बचपन से ही पढऩे की इच्छा जाहिर करने पर अपनी सौतेली मां से पिटती रही है। उसने जीवन को पाठशाला में आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ा है और इत्तेफाक से यही पाठ 'क्वीन' की नायिका भी पढ़ती है।

रज्जू इस नतीजे पर पहुंची है कि अन्याय आधारित असमानता से पीडि़त बीमार समाज में अधिकार छीनना पड़ता है और घुंघरू, पायल के बदले तलवार उठानी पड़ती है। वह हिंसा को न्यायसंगत नहीं मानती परंतु लाख प्रार्थना करने पर भी बात नहीं बनती तो हथियार उठाती है। वह अपने समान दमित स्त्रियों का दल संगठित करती है। उसका बचपन से चला आ रहा सपना कस्बे में स्कूल की स्थापना करना है।

Source: Women Centric Film on Women's Day - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 8th March 2014



इसी फिल्म में शहर की पढ़ी-लिखी श्रेष्ठि वर्ग के राजनैतिक परिवार की महत्वाकांक्षी और निर्भय महिला के हृदय में इस कदर लोहा समाया है कि उसने अपने नेता पति की हत्या करके उसकी राजनैतिक विरासत पर हक जमा लिया है। एक दलित स्त्री को लगता है कि स्कूल की स्थापना समाधान है परंतु हम देखते हैं कि पढ़ी-लिखी मैडम साम, दाम और दंड की नीति अपनाकर सत्ता के माध्यम से अपने लालच को ही भरती है। 

शायद ऐसे ही किसी संदर्भ में निदा फाजली ने कुछ इस आशय की पंक्तियां लिखी थीं कि इन मासूम बच्चों को भारी-भरकम किताबों से बचा लो, दो-चार किताबें पढ़कर ये हमारी तरह ही कमीने हो जाएंगे। शिक्षा के लिए ललक काबिले तारीफ है परंतु जिस शिक्षा के लिए शोर है, सारा हंगामा है, उस शिक्षा का स्वरूप क्या है? क्या वह नैतिक मूल्य सिखाती है या महज अंकगणित और अक्षर ज्ञान देकर आपकी सोच पर महज एक मुलम्मा चढ़ाती है। भारत में शिक्षा संस्थान बहुत खुले हैं परंतु वे सिखा क्या रहे हैं? 

हाल ही में प्रकाशित एक आकलन में विश्व के श्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों में भारत की विशाल संख्या में खुली संस्थाओं में मात्र तीन को महत्वपूर्ण माना गया है। बहरहाल 'गुलाब गैंग' में अशिक्षित परंतु नेक नीयत वाली रज्जू (माधुरी) की जंग शुरू होती है, शिक्षित श्रेष्ठि वर्ग की अनुभवी मैडम (जूही चावला मेहता) से और यह द्वंद अत्यंत रोचक और मनोरंजक है। निर्देशक सौमिक सेन ने कथा-पटकथा एवं गीत भी लिखे हैं और उनकी धुनें भी बनाई हैं। उन्होंने लोकगीतों का अत्यंत प्रभावोत्पादक उपयोग किया है। 

रज्जू की नजदीकी सहेली की भूमिका और अभिनय कमाल का है और उसकी मृत्यु हृदयविदारक है तथा यह कड़वा तथ्य भी रेखांकित करती है कि पुरुष प्रेम को भी एक जाल की तरह इस्तेमाल करता है और प्रेम का यह पाखंड उसकी जन्मना कमतरी को पूरा करने का प्रयास मात्र है। इस फिल्म में दोनों महिला पात्रों के बीच संवादबाजी कुछ इस तेवर की है मानो सलमान खान और शाहरुख खान 'वन अप मैन शिप का खेल खेल रहे हो'। अगर रज्जू के पास शब्दों के तीर हैं तो मैडम की मुस्कान उनका दंश निकाल देती है। फिल्मकार ने सारा वजन रज्जू को दिया है परंतु मैडम का असर गहरा है क्योंकि पहली बार एक स्वार्थी खलनायिका चीखती नहीं है, वह बस मुस्कराती है जिसमें हजार अर्थ छुपे होते हैं। 

यह सोफिस्टिकेशन के साथ बुरे काम करना अदाकारी का एक नया अंदाज है जिसका श्रेय फिल्मकार और जूही दोनों को ही जाता है। इस फिल्म के सारे कलाकारों ने मंजा हुआ अभिनय किया है और भूमिकाएं भी सुस्पष्ट परिभाषित हैं। फिल्मकार के सामने कोई धुंध नहीं। सब कुछ स्पष्ट और मुखर है। रज्जू और साथियों के संवाद ठेठ गांवठी है और उनमें कोई बनावट नहीं है। मैडम कत्ल भी करती हैं तो इस कदर मासूमियत से मानो केक काट रही हों। 

हर वर्ष महिला दिवस पर लेख लिखे जाते हैं, शोर शराबा होता है और स्त्री केंद्रित फिल्में भी प्रदर्शित होती हैं परंतु यथार्थ की जमीन पर कुछ नहीं बदलता। सात मार्च के पहले और नौ मार्च के बाद रज्जू हमेशा पिटती रहती है, उसकी मुंहफुट तेज-तर्रार सहेली प्रेम के द्वारा छली और मारी जाती है। 

एक युवा अय्याश को दंड देने के लिए उसका एक अंग काट दिया जाता है, परंतु उस अंग की सार शक्ति तो जाहिल दिमाग में है जो नदी के किनारे का ऐसा पत्थर है कि सदियों से परिवर्तन की लहरें उस पर अपना माथा फोड़ती आ रही है और टूटा नहीं वरन् मात्र चिकना हो गया है। समाज की इसी चिकनाई पर प्रहार करती है 'गुलाब गैंग'। आज के प्रदर्शन में 'क्वीन' और 'गुलाब गैंग' के दर्शकों में पुरुष अधिक थे और यही तो सारे नारी केंद्रित प्रयासों की कड़वी हकीकत है।

Parde Ke Peeche - Jaiprakash Chouksey


































Source: Women Centric Film on Women's Day - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 8th March 2014 

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