फॉरबर-पूरना जगनाथन: अहिल्या से 'निर्भया' तक
परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे
दशकों पूर्व पढ़ी एक कविता का आशय कुछ इस प्रकार था कि दो पड़ोसी मित्र अपने-अपने घर के खिड़की के पास बैठकर शराब पीते थे। एक दिन एक मित्र ने शराब का गिलास भरा परंतु पिया नहीं क्योंकि उसने यह तय किया था कि अब वह उसी दिन पियेगा जिस दिन मीडिया में किसी दुष्कर्म की खबर नहीं छपेगी। गोयाकि एक सर्वथा दुष्कर्म विहीन दिन ही उसे इतमीनान से पीने की इजाजत देगा। वर्षों तक वह रोज गिलास भरता उसे देखता परंतु पीता नहीं था। एक दिन उसने पड़ोसी से कहा कि आज कहीं से उस बर्बरता की खबर नहीं है, चीयर्स, कहकर उसने जाम मुंह तक लाया कि पड़ोसी मित्र चीखा कि तेरी बेटी का अपहरण हो रहा है, नीचे गली में गुंडे उसे उठा रहे हैं। दोनों दौड़कर नीचे पहुंचे और गुंडों की जीप का गुबार देखते रहे।
अठारह मार्च को शाम साढ़े सात बजे मुंबई के एन.सी.पी.ए. टाटा थियेटर में लेखिका निर्देशक फॉरबर और निर्माता-अभिनेत्री पूरना जगनाथन का नाटक 'निर्भया' मनमोहन शेट्टी की एडलैब्स के सौजन्य से देखने का सौभाग्य मिला और उसके साथ ही मिला एक बेचैन सा रतजगा जिसमें मैंने गिलास तो भरा परंतु पिया नहीं क्योंकि अब तक 16 दिसंबर 2012 की मनहूस रात को राजधानी दिल्ली में हुए निर्भया के दुष्कर्म के बारे में मीडिया में बहुत कुछ जारी हुआ पढ़ा था और उसके दर्द को महसूस करने की चेष्टा भी की थी परंतु फॉरबर और पूरना की प्रस्तुति में पहली बार लगा कि मैं उस बर्बर घटना का चश्मदीद गवाह हूं और मेरी आंखों के सामने सब कुछ हुआ है तथा मैं केवल भरे गिलास को देखते हुए महानगरीय संवेदनहीनता से ग्रस्त एक पाखंडी व्यथित हूं। मैं अब तक गमजदा होने का अभिनय करता रहा हूं और आज पहली बार निर्भया की चीख मेरे मन में गूंज रही है। संभवत: निर्भया त्रासदी को टाटा थियेटर में मौजूद हजार लोगों ने पहली बार इस शिद्दत से जाना। नाट्य विद्या को भी सलाम।
Source: Yael Farber - Poorna Jangannathan: From Ahilya to Nirbhaya - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 20th March 2014
सत्रह मार्च को निर्भया का एक शो दक्षिण मुंबई के सांसद मिलिंद देवरा ने आयोजित किया था। उन्होंने अपने निमंत्रण पत्र के साथ एक संक्षिप्त सारगर्भित पत्र भी भेजा जिसमें सुरक्षा का अभाव, सरकार और कानून की कमतरी के साथ यह भी लिखा कि भारतीय जनमानस में सदियों से मौजूद लिंग-भेद को मिटाना सुरक्षा का पहला कारगर उपाय है। स्त्री-पुरुष की असमानता की जड़ें हमारे समाज में बहुत गहरी हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1956 में संविधान में संशोधन प्रस्तुत करके पुत्री को पिता की सम्पत्ति का बराबर अधिकारी बनाया और शायद तब से ही रूढि़वादी लोग नेहरू विरोधी हो गए और आर्थिक उदारवाद के प्रारंभ से ही नेहरू विरोध का एक घातक षड्यंत्र रचा गया है, जो आज भी तरह-तरह से अभिव्यक्त हो रहा। आधुनिकता के प्रति उनके घोर आग्रह को रूढि़वादी लोग आज भी कोस रहे हैं। यह नाटक बरबस हमें शोएब मंसूर की फिल्म 'बोल' की याद दिलाता है। इस नाटक में भी अन्याय के खिलाफ खामोशी बनाए रखने की भत्र्सना की गई है। सायलेन्स को तोडऩे का आग्रह है। दुष्कर्म की जितनी घटनाएं थानों में दर्ज की जाती हैं उससे सौ गुना अधिक इसी चुप्पी के कारण प्रकाश में नहीं आतीं। दुष्कर्म की गई कन्या का परिवार ही घटना को छुपाने की सलाह लड़की को देता है। तमाम बचपन के यौन अपराध इसी तरह छुपे रहते हैं जैसा कि हम इम्तियाज अली के 'हाइवे' में देख चुके हैं परंतु इस नाटक में इस दारुण दु:ख को भुगतने वाली का बार-बार अपने शरीर को धोना और दंश समान उन अभद्र स्पर्शों से मुक्ति के हताशा भरे प्रयास बरबस आपकी आंखें नम कर देता है। दरअसल अमड़ स्पर्श त्वचा के किनारों के पार जाकर आत्मा में बैठ जाते है और ताउम्र व्यक्ति उस बोझ को लिए घूमता है। यह नाटक उस वैध एवं 'संस्कार सम्मत' दुष्कर्म का जिक्र भी करता है जो प्राय: वाकायदा विवाहित पति अपनी अनिच्छुक पत्नियों के साथ करते हैं।
इस नाटक में एक पाकिस्तानी लड़की की व्यथा-कथा भी है और एक भारतीय महिला के शिकागो में हुए दुष्कर्म की कथा भी है तथा एक पत्नी को दहेज के लिए जलाए जाने और उसके बच जाने पर उससे उसके पुत्र को जबरन छीनने की हृदय विदारक कथा भी है। और अस्पताल में अधजले चेहरे पर मासूम पुत्र के उंगलियां फिराने को भी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है। अब वह अधजली अभागी स्त्री राह में जाते हर युवा में अपना पुत्र खोज रही है। नाटक में प्रस्तुत सारी घटनाएं यथार्थ जीवन की हैं और अंत में सभी पात्र यथार्थ व्यक्ति का पूरा नाम लेते हैं।
फॉरबर ने विलक्षण प्रयोगवादी प्रस्तुति की है। मंच पर छह स्त्रियां और एक पुरुष विविध भूमिकाएं करते हैं, वे सड़क की भीड़ से लेकर बस और ट्रेन के कक्ष तक का अनुभव प्रस्तुत करते हैं। मंच पर केवल दो जगह कुल जमा पांच खिड़कियां लटकती हैं, जिनके हिलने और पाश्र्व संगीत से चलती बस और ट्रेन का प्रभाव पैदा किया गया है। सारे कलाकार प्रतिभाशाली हैं और हर हरकत तथा शब्द भावना की गहराई लिए प्रस्तुत हैं। नाटक में जगह-जगह दुर्गा स्तुति सही उच्चारण के साथ गाई गई है। नाटक के अंत में निर्भया की अर्थी का दृश्य इतना प्रभावोत्पादक है कि शव-यात्रा में आपको शामिल होने का आभास होता है। अस्थियों के पात्र का भी सार्थक प्रयोग किया। फॉरबर और पूरना जगनाथन को भारत-रत्न दिया जाना चाहिए।
Source: Yael Farber - Poorna Jangannathan: From Ahilya to Nirbhaya - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 20th March 2014
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