शिवेन्द्रसिंह डूंगरपुर का प्रयास
परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे
आर के स्टूडियो में शिवेन्द्र सिंह डूंगरपुर से मुलाकात हुई जिनका बनाया एक वृत्तचित्र अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में सराहा गया है। पुणे फिल्म संस्थान के आर्काइव की सुचारु रूप से दशकों तक देखभाल करने वाले अत्यंत समर्पित पीके नायर साहब के जीवन पर बने इस वृत्तचित्र में सिनेमा इतिहास की झलक भी देखने को मिलती है।
दरअसल इस संस्थान में पढ़े सारे छात्र नायर साहब के ऋणी रहे हैं। हर समय उनकी मांग पर उन्होंने फिल्म उपलब्ध कराई है। उनका महत्व इस बात से स्पष्ट होता है कि उनके सेवानिवृत्त होने के बाद फिल्म संग्रहालय एक कबाडख़ाना बन कर रह गया है। यह भी सुनने में आया है कि जब इस वृत्तचित्र के पुणे फिल्म संग्रहालय में शूटिंग की आज्ञा मांगी गई तब नायर साहब की अवहेलना की गई। जिस व्यक्ति ने उस स्थान को दशकों सहेजा संवारा, उसे ही उस स्थान पर आने की आज्ञा नहीं गोयाकि मंदिर बनाने वाले कारीगर को ही मूर्तिपूजा की आज्ञा नहीं।
दरअसल इस संस्थान में पढ़े सारे छात्र नायर साहब के ऋणी रहे हैं। हर समय उनकी मांग पर उन्होंने फिल्म उपलब्ध कराई है। उनका महत्व इस बात से स्पष्ट होता है कि उनके सेवानिवृत्त होने के बाद फिल्म संग्रहालय एक कबाडख़ाना बन कर रह गया है। यह भी सुनने में आया है कि जब इस वृत्तचित्र के पुणे फिल्म संग्रहालय में शूटिंग की आज्ञा मांगी गई तब नायर साहब की अवहेलना की गई। जिस व्यक्ति ने उस स्थान को दशकों सहेजा संवारा, उसे ही उस स्थान पर आने की आज्ञा नहीं गोयाकि मंदिर बनाने वाले कारीगर को ही मूर्तिपूजा की आज्ञा नहीं।
Source: Shivendrasingh Dungarpur's Effort of Restoring Classic Hindi Films - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 6th March 2014
सभी स्थानों पर ऐसे लोग सत्तासीन हो जाते हैं जो नींव के पत्थर और मेहनतकश को ही सम्मान नहीं देते। बाबूगिरी सभी जगह कार्य की दुश्मन है और बाबुओं की कुंठा एक पूरी किताब का विषय है। बहरहाल शिवेन्द्र सिंह डूंगरपुर एक समर्पित फिल्म प्रेमी हैं और उसके इतिहास के प्रति संवेदनशील हैं तथा उसकी विरासत को संजोये रखने के प्रयास निरंतर करते रहते हैं।
आर के स्टूडियो में उनके आने का उद्देश्य यह था कि स्टूडियो से 'आवारा', 'श्री 420' और 'जागते रहो' के निगेटिव को सहेज कर रखा जाए ताकि भविष्य का दर्शक उन्हें देख सके। और इसके लिए उन्हें आज्ञापत्र चाहिए था। हॉलीवुड में बने तमाम क्लासिक्स के मूल को सहेजना और उनका पुनरुद्धार करना अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है और हॉलीवुड की परंपरा में दीक्षित इस्माइल मर्चेंट ने सत्यजीत रॉय की कुछ फिल्मों के रेस्टोरेशन का काम विशेषज्ञों से कराया है।
दरअसल सिनेमा के सारे प्रेमी, वे चाहें फिल्मकार हों या दर्शक हों एक अदृश्य डोर से बंधे हैं, इसीलिए हॉलीवुड के इस्माइल मर्चेंट सत्यजीत राय की फिल्मों को सहेजता और स्टीवन स्पिलबर्ग जापानी अकिरा कुरोसोव की फिल्म के लिए धन उपलब्ध कराते हैं।
शिवेन्द्रसिंह डूंगरपुर एक संस्था के संधान में जुटे हुए हैं जो पचास भारतीय क्लासिक फिल्मों के निगेटिव को दर्शकों की आने वाली पीढिय़ों के लिए सहेजना चाहते हैं। इस काम में उनके साथ श्याम बेनेगल जैसे व्यक्ति भी जुड़े हैं और विदेशों से भी तकनीकी सहायता मिल रही है। रणधीर कपूर ने उन्हें बताया कि प्रारंभ से ही आर.के. की फिल्मों के निगेटिव को चुस्त दुरुस्त रखने के लिए प्रयोगशाला में व्यक्ति तैनात है जो टाइमटेबल के मुताबिक रील दर रील घुमाकर उन्हें सहेजता है और समय-समय पर मांग नहीं होने के बावजूद प्रिंट बनाते हैं क्योंकि प्रिंट बनाते रहना ही उन्हें सहेजने का एक तरीका है।
भारत की कुछ फिल्म प्रयोगशालाएं रेस्टोरेशन के नाम पर सतही काम करते हैं। पश्चिम में इसी प्रक्रिया में अनेक प्रिंट्स में से छांटकर फ्रेम दर फ्रेम एक ऐसा प्रिंट बनाते हैं जो मूल के साथ न्याय करता है और इस प्रक्रिया में समय के साथ ही बहुत धन लगता है। शिवेन्द्र सिंह डूंगरपुर निर्माता या उसके पुत्रों से केवल रेस्टोरेशन की आज्ञा मांग रहे हैं। धन वे अन्य स्रोतों से आयोजित करेंगे गोयाकि वे रेस्टोरेशन जैसी विरासत को सहेजने के लिए एक मंच बन रहे हैं ताकि फिल्म प्रेमी उसमें सक्रिय भागीदारी कर सकें। उनकी योजना को जानकर स्वयं मैंने उन्हें राजकपूर की तीनों फिल्मों के रेस्टोरेशन के लिए पचास हजार देने का वादा किया है। हर दर्शक की स्मृति में कुछ फिल्में हमेशा के लिए अंकित हो जाती हैं और उनके अपने जीवन का हिस्सा बन जाती हैं।
अत: हम जिस तरह अपने परिवार के स्वर्गवासी सदस्यों की तस्वीरों को बुहारते हैं और श्राद्ध भी करते हैं, मुसलमान फातिहा पढ़ते है, उसी तरह हम अपनी प्रिय फिल्मों के लिए भी कुछ कर सकते हैं। जिस तरह परिवार के एलबम के चित्र हमसे बातें करते हैं, उसी तरह मन के परदे पर अवचेतन का प्रोजेक्टर प्रिय फिल्में दिखाता है और उसका भी रेस्टोरेशन आवश्यक है।
भारत की प्रयोगशालाओं का नाम के लिए किया गया सतही रेस्टोरेशन यह बात भी प्रकाश में ाता है कि भारत के अनेक शहरों में वोकेशनल कोर्स के संस्थान कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। संगमरमरी इमारतें हैं, भव्य परिसर हैं, परंतु योग्य शिक्षकों के अभाव में सबकुछ बेकार हो जाता है। भारत के युवा बहुत महत्वाकांक्षी हैं वे नए शास्त्र सीखना चाहते हैं और उनकी इस इच्छा ने एक व्यापार को जन्म दे दिया है। ये सुंदर परिसर प्रेम के लिए उचित है, परंतु ज्ञान बिना योग्य गुरु के संभव नहीं है।
इस संदर्भ में डूंगरपुर का प्रयास सराहनीय है। उन्होंने केवल अपने सिनेमा प्रेम की खातिर कुछ साल पहले राजकपूर का पुराना मिचेल कैमरा खरीदा है। वे उस कैमरे से पूछें कि 'संगम का' कभी न कभी कोई न कोई आएगा, सोते भाग जगाएगा या 'जोकर' का गीत 'रात से कहे दिया, बावली ये तूने क्या किया' फिल्मों में नहीं रखे गए परन्तु गए कहां?
Source: Shivendrasingh Dungarpur's Effort of Restoring Classic Hindi Films - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 6th March 2014
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