Wednesday, October 2, 2013

सफल लोग कभी सीखना नहीं छोड़ते - मैनेजमेंट फंडा - एन रघुरामन - 2nd October 2013

पहली कहानी: महात्मा गांधी को 1931 में राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने के लिए ब्रिटेन बुलाया गया था। वे हमेशा जैसे कपड़े पहनते थे, वैसे ही पहनकर वहां पहुंच गए। वहां मौजूद लोग सकते में पड़ गए। तरह-तरह की बातें होने लगीं। मीडिया में भी खबरें छपीं। लोगों ने भी उनकी आलोचना की। लेकिन बापू ने आत्मविश्वास नहीं खोया। प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान उनसे पत्रकारों ने उनके कपड़ों से संबंधित सवाल किए। उन्होंने जवाब दिया, ‘आप सभी लोग प्लस फोर पहनते हैं और मैं माइनस फोर पहनता हूं।’ बताते चलें कि उस जमाने में घुटने से चार इंच नीचे तक पैंट, कोट या कोटी, शर्ट और टाई पहनने का चलन था। लेकिन महात्मा गांधी घुटने से चार इंच ऊपर तक सिर्फ एक धोती पहनते थे। पत्रकारों को उनके जवाब से साफ था कि वे महज सामाजिक शिष्टाचार के लिए सिद्धांतों से समझौता नहीं कर सकते। उन्होंने यह भी संदेश दिया कि कोई उन्हें ड्रेस कोड के बारे में आदेश-निर्देश नहीं दे सकता। एक बार उन्हें लखनऊ में बुजुर्गो के लिए बनाए आश्रय स्थल के उद्घाटन के लिए बुलाया गया। 

 Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 2nd October 2013
उन्होंने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया। उन्होंने लिखा, ‘लखनऊ जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शहर में बुजुर्गो के लिए आश्रय स्थल खोलना कोई गर्व की बात नहीं, बल्कि शर्म की बात है। आप जब इस आश्रय स्थल को बंद करने के लिए कोई कार्यक्रम आयोजित करें तो मुझे याद करें।’ ऐसे ही, 1930 के दशक में जब बापू पुणो की येरवडा जेल में कैद थे तो एक बार उनसे पत्नी कस्तूरबा मिलने आईं। जेल के कर्मचारी ने बापू मीटिंग रूम में लाकर छोड़ दिया और चला गया। मुलाकात का वक्त खत्म हुआ तो वह यह बताने के लिए लौटा। देखा कि बापू और उनकी पत्नी दोनों वहां चुपचाप बैठे हुए एक-दूसरे को देख रहे हैं। उवजह पूछी तो बापू ने कहा, ‘नियमों के मुताबिक कैदी सिर्फ जेल कर्मचारी की मौजूदगी में ही मिलने आए व्यक्ति से बात कर सकता है।’ उस रोज मुलाकात का वक्त खत्म हो चुका था इसलिए कस्तूरबा को अगले दिन फिर आना पड़ा। जेलर को पता चला तो उसकी आंखें भर आईं।

दूसरी कहानी: चाल्र्स बोयर फ्रेंच अभिनेता थे। वे 1920 से 1976 के दौरान करीब 80 फिल्मों में नजर आए। उन्हें 1930 के दशक में अमेरिकी फिल्मों में भारी सफलता मिली। जब वे अमेरिकी स्टूडियो में शूटिंग के लिए पहुंचे तो फिल्म के असिस्टेंट डायरेक्टर ने उनसे पूछा, ‘आज कैसा लग रहा है?’ चाल्र्स ने जवाब दिया, ‘धीरे-धीरे मर रहा हूं।’ सवाल पूछने वाले को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। उसे लगा कि आज शायद चाल्र्स एक्टिंग के मूड में नहीं हैं। वह शूटिंग शेड्यूल बदलने की सोचने लगा। उसने चाल्र्स से एक सवाल और पूछ लिया, ‘क्या किसी तरह की दिक्कत है?’ चाल्र्स ने जवाब दिया, ‘इंसान की जिंदगी में मौत सुनिश्चित है। लेकिन कोई मानना नहीं चाहता। हम जिस दिन पैदा हुए उसी दिन से हमने मौत की तरफ कदम बढ़ाना शुरू कर दिए थे। जो भी इस सच को मान ले, वह कभी किसी से नहीं डरता।’ इस जवाब के बाद किसी के पास कोई सवाल नहीं बचा था। बस काम (शूटिंग) था, जो बिना रुकावट पूरा हुआ।

तीसरी कहानी: सुकरात ग्रीक दार्शनिक थे। वे जेल में थे और अगले दिन उन्हें मौत की सजा दी जानी थी। तभी उन्होंने सुना कि उनके साथ वाला कैदी एक मुश्किल से गीत को बेहद आसानी से गा रहा है। उन्होंने उससे कहा कि उन्हें भी वह गीत सिखा दे। उसने पूछा, ‘आपको तो कल मौत की सजा होने वाली है। फिर आप यह गीत सीखकर क्या करेंगे?’ सुकरात ने बड़ी सहजता से जवाब दिया, ‘मैं यह सोचकर शांति से मर सकूंगा कि मरने से पहले मैंने एक और नई चीज सीख ली।’


फंडा यह है कि..

सफल लोग कभी सीखना नहीं छोड़ते। कभी अनजान रास्तों पर चलने से नहीं डरते। और अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करते।






 











Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 2nd October 2013

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