मई 1969, यह गर्मियों की बात है। नागपुर में मैं अपनी मां के साथ साइकिल रिक्शा से ठेकड़ी रोड से गुजरते हुए रेलवे स्टेशन की ओर जा रहा था। खड़ी चढ़ाई वाली सड़क और उसके किनारे जूस बेचने वालों के ठेले। उन दिनों बर्फ का ठंडा पानी पांच पैसे में दिया करते थे। यह एक चलन सा हो गया था कि रिक्शे में बैठे हर युवक को उतरकर उसे पीछे से धक्का देना होता था। हम अभी प्रसिद्ध गणोश मंदिर के पास पहुंचे ही थे कि मेरी मां ने रिक्शेवाले को रुकने के लिए कह दिया। एक ठेले वाले को तीन गिलास संतरे के जूस का ऑर्डर दिया।
Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 3rd October 2013
थोड़ी देर में दुकान में काम करने वाला लड़का बड़े-बड़े गिलासों में जूस लेकर आ गया। यह देख मैंने मां से पूछा, ‘क्या आप दो गिलास जूस पिएंगी।’ वे मुस्कुरा दीं और मेरे सिर पर थपकी मार कर बोलीं, ‘जाओ और यह एक गिलास उस रिक्शेवाले को देकर आओ। वह बेचारा 15 मिनट से इस चढ़ाई और तेज गर्मी में रिक्शा खींच रहा है। आखिर वह भी तो इंसान है।’ मैं उस वक्त स्कूली बच्चा था। ज्यादा समझ नहीं पाया। मैंने जब रिक्शेवाले को जूस का गिलास दिया तो वह दोनों हाथों से उसे पकड़कर यूं पी रहा था जैसे अमृत मिल गया हो। उस घटना के बाद भी कई बार मैंने अपनी मां को ऐसे ही कई काम करते देखा। घर में जब भी कोई मजदूर काम करने आता, पेंटर पुताई करने आता या बढ़ई फर्नीचर बनाने या ठीक करने आता तो वे उसे खाना खिलाती थीं। मैं उनसे अक्सर तर्क किया करता कि ऐसे लोगों को खिलाने-पिलाने का क्या मतलब?
हम उन्हें उनके काम के एवज में पैसे तो देते ही हैं, लेकिन मां कहां सुनने चली। वह वही करतीं जो उसे ठीक लगता। शायद ठीक होता भी था। उन दिनों ट्रेनों में पेंट्री कार (रसोई वाला डिब्बा) नहीं होती थी। इसलिए, मद्रास से दिल्ली जाने वाले मेरे रिश्तेदार या जान-पहचान वाले अक्सर एक पोस्टकार्ड में मेरी मां को चिट्ठी भेजते थे। इसमें वे अपनी यात्रा की तारीख और ट्रेन के बारे में बताते। और मेरी मां मुझे लेकर हमेशा उन लोगों के लिए निश्चित तारीख और समय पर रोटी-सब्जी, इडली, दही, चावल, आदि लेकर स्टेशन पहुंच जाती। ये लोग मुझे बिल्कुल पसंद नहीं थे, लेकिन क्या करता। ट्रेन चलने लगती तो कई बार वे मुझे केला या उनके पास रखा कोई दूसरा फल पकड़ा जाते। वे जाते-जाते मेरी मां को अपने लौटने की तारीख और ट्रेन का टाइम भी बता देते। इसका मतलब कि उन्हें लौटने पर भी खाना चाहिए। स्टेशन से लौटते वक्त मैं मां के एक चेहरे पर संतोष और आनंद का भाव साफ देखता था। हमेशा ही किसी न किसी को खाना खिलाकर उन्हें खुशी मिलती थी। ठीक इसी तरह की खुशी उन्हें तब भी होती थी जब मेरे पिता हर शाम काम से लौटते वक्त उनके लिए मोगरे का गजरा लेकर आते थे।
एक बार मैं गर्मियों की छुट्टियों में नाना-नानी के घर गया। वहां मैंने अपनी नानी की एक अजीब सी आदत देखी। वे रोज डाकिए को एक गिलास मठा पिलाती थीं। डाकिया रोज घर आता। ज्यादातर मौकों पर नानी से यही कहता कि आज कोई चिट्ठी नहीं आई है। फिर बैठता और मठा पीकर चला जाता। मैंने इसकी वजह जाननी चाही तो मुझे बताया गया कि जब भी कोई चिट्ठी आती है, वह डाकिया उसे पढ़कर नानी को सुनाता है, क्योंकि नानी पढ़ी-लिखी नहीं थीं। मैंने नानी से कहा कि आपके पत्र मैं पढ़ दिया करूंगा। तो नानी मुस्कुराकर बोलीं, ‘छुट्टियों के बाद तू चला जाएगा, तब मैं क्या करूंगी?’ किसी को कुछ देकर उनके चेहरे पर वैसी ही खुशी दिखती थी, जैसी मैं अपनी मां के चेहरे पर देखता था। जब वे इसी तरह का कोई काम किया करती थीं। मैं नहीं जानता कि नानी और मां से मिली इस परंपरा को मैं अपने बच्चों को दे पाऊंगा या नहीं। लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि देने के इस सुख में कुछ तो खास था और है भी।
हम उन्हें उनके काम के एवज में पैसे तो देते ही हैं, लेकिन मां कहां सुनने चली। वह वही करतीं जो उसे ठीक लगता। शायद ठीक होता भी था। उन दिनों ट्रेनों में पेंट्री कार (रसोई वाला डिब्बा) नहीं होती थी। इसलिए, मद्रास से दिल्ली जाने वाले मेरे रिश्तेदार या जान-पहचान वाले अक्सर एक पोस्टकार्ड में मेरी मां को चिट्ठी भेजते थे। इसमें वे अपनी यात्रा की तारीख और ट्रेन के बारे में बताते। और मेरी मां मुझे लेकर हमेशा उन लोगों के लिए निश्चित तारीख और समय पर रोटी-सब्जी, इडली, दही, चावल, आदि लेकर स्टेशन पहुंच जाती। ये लोग मुझे बिल्कुल पसंद नहीं थे, लेकिन क्या करता। ट्रेन चलने लगती तो कई बार वे मुझे केला या उनके पास रखा कोई दूसरा फल पकड़ा जाते। वे जाते-जाते मेरी मां को अपने लौटने की तारीख और ट्रेन का टाइम भी बता देते। इसका मतलब कि उन्हें लौटने पर भी खाना चाहिए। स्टेशन से लौटते वक्त मैं मां के एक चेहरे पर संतोष और आनंद का भाव साफ देखता था। हमेशा ही किसी न किसी को खाना खिलाकर उन्हें खुशी मिलती थी। ठीक इसी तरह की खुशी उन्हें तब भी होती थी जब मेरे पिता हर शाम काम से लौटते वक्त उनके लिए मोगरे का गजरा लेकर आते थे।
एक बार मैं गर्मियों की छुट्टियों में नाना-नानी के घर गया। वहां मैंने अपनी नानी की एक अजीब सी आदत देखी। वे रोज डाकिए को एक गिलास मठा पिलाती थीं। डाकिया रोज घर आता। ज्यादातर मौकों पर नानी से यही कहता कि आज कोई चिट्ठी नहीं आई है। फिर बैठता और मठा पीकर चला जाता। मैंने इसकी वजह जाननी चाही तो मुझे बताया गया कि जब भी कोई चिट्ठी आती है, वह डाकिया उसे पढ़कर नानी को सुनाता है, क्योंकि नानी पढ़ी-लिखी नहीं थीं। मैंने नानी से कहा कि आपके पत्र मैं पढ़ दिया करूंगा। तो नानी मुस्कुराकर बोलीं, ‘छुट्टियों के बाद तू चला जाएगा, तब मैं क्या करूंगी?’ किसी को कुछ देकर उनके चेहरे पर वैसी ही खुशी दिखती थी, जैसी मैं अपनी मां के चेहरे पर देखता था। जब वे इसी तरह का कोई काम किया करती थीं। मैं नहीं जानता कि नानी और मां से मिली इस परंपरा को मैं अपने बच्चों को दे पाऊंगा या नहीं। लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि देने के इस सुख में कुछ तो खास था और है भी।
फंडा यह है कि..
देने का सुख’ एक हफ्ते का समारोह नहीं हो सकता। यह तो जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है। यही हमारी संस्कृति है।
Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 3rd October 2013
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