मुंबई के मलाड में गरबा आयोजनों में हिस्सा लेने वालों और इसे देखने जाने वालों के बीच धर्मेश शाह की बहुत मांग है। गरबे में डांस करते हुए लड़के-लड़कियों की आंखें लगातार उनको ढूंढती रहती हैं। आपको अचरज होगा कि धर्मेश न तो पारंपरिक गरबा की ड्रेस में होते हैं न वे डांस ही करते हैं। फिर भी वे हर किसी के बीच आकर्षण का केंद्र हैं, क्योंकि वे गरबा के विशेषज्ञ हैं। वे नई उम्र के छात्र हैं और भारत के लोकनृत्यों पर शोध कर रहे हैं। उनके मुताबिक, नवरात्रि में विशेष रूप से होने वाला गरबा अपनी असल प्रकृति खो ही देता, लेकिन शुक्र मनाइए आजकल होने वाले बड़े-बड़े आयोजनों, पश्चिमी परिधान, फ्यूजन संगीत का, जिसने कुछ हद तक इसे बचाकर रखा हुआ है। धर्मेश एक उदाहरण देते हैं।
Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 8th October 2013
गुजरात में कच्छ के रतनाल में रहने वाले अहीर समुदाय की औरतों का पारंपरिक गरबा। कुछ पुरानी औरतें इसके कठिन स्टेप्स और हाथ के मूवमेंट को आज भी वैसे ही करती हैं, जैसा पहले से होता आया है। लेकिन नई उम्र के बच्चे इन मुश्किल स्टेप्स को सीखने में रुचि नहीं रखते। यह हालात उस समुदाय के हैं, जो जन्माष्टमी पर मां यशोदा की पूजा करते हैं। अहीर समुदाय का यह गरबा ढोल की खास थाप पर होता है और स्थानीय लोगों की मानें तो रतनाल के क्षेत्र में इस खास थाप को देने वाला सिर्फ एक ही ढोली बचा है।
धर्मेश के मुताबिक, पूर्णिमा शाह जैसे लोग भी इस तरह के लोकनृत्यों का डॉक्यूमेंटेशन करने का काम कर रहे हैं। पूर्णिमा अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। लोक नृत्यों खासकर, गरबा की परंपरा को सहेजने की उनकी छटपटाहट का ही नतीजा रहा कि उन्होंने इस पर ‘डांसिंग विद गॉडेस’ नामक डॉक्यूमेंट्री बना डाली। इसमें 10 तरीके के नए-पुराने पारंपरिक गरबा के बारे में बताया गया है। साथ में यह भी कि गुजरात के हर क्षेत्र में गरबा की परंपरा अपने आप में खास होती है। कच्छ के भद्रेश्वर में राजपूत एक खास किस्म का गरबा करते हैं, तलवारों के साथ। इस डांस की जड़ें भी प्राचीन परंपराओं में हैं। राजपूत युद्ध पर जाने से पहले अपनी कुल देवी की आराधना करते हुए यह नृत्य करते थे। इस डांस के असल स्टेप्स जानने वाला एक ही विशेषज्ञ जीवित है। इसके लिए ढोल की वास्तविक थाप देने वाला ढोली भी एक ही है। जामनगर के द्वारका में गूगली ब्राह्मण नवरात्र के दौरान नवदुर्गा के गीत गाते हुए गरबी का जुलूस निकालते हैं। मां दुर्गा के नौ रूपों की आराधना करते हुए भक्त मांड बनाते हैं। यह पिरामिड के जैसा आकार होता है। इसके ऊपरी हिस्से को फूलों से इस तरह सजाया जाता है कि उसके नौ कोण होते हैं। इस डांस के दौरान भक्त संस्कृत में आराधना करने को प्राथमिकता देते हैं।
इसी इलाके में ‘जाला नी जार’ नाम का एक और गरबा होता है। इसमें शिव-शक्ति के विवाह का उत्सव मनाया जाता है। इसमें सैकड़ों युवक छोटे-छोटे चौकोर समूहों में बिना सिले हुए पारंपरिक कपड़े पहनकर करीब साढ़े चार घंटे तक विशेष लय पर नृत्य करते हैं। मेहसाणा के इलाके में औरतें फूलों से सजे हुए मांड को सिर पर रखकर नाचती हैं। पहले यह मांड लकड़ी का होता था। उसे आयोजन के बाद विसर्जित कर दिया जाता था। लेकिन अब धातु का होता है। मांड के बीचों-बीच मां दुर्गा की प्रतिमा होती है। इस डांस को भगवान का शुक्रिया अदा करने का तरीका माना जाता है कि उन्होंने भक्तों को संतान से नवाजा। भावनगर के कोली समाज में घोघा नाम का गरबा होता है। इसकी रफ्तार काफी तेज होती है। साथ ही एक खास स्टेप हमची भी। इसमें कंधों और कूल्हों का मूव कुछ इस तरह होता है जैसे अनाज को कूटा जा रहा हो। यह डांस रांदल मां से जुड़ा हुआ। यह अच्छे स्वास्थ्य और बढ़िया उपज की देवी मानी जाती हैं। ऐसे ही और भी न जानें कितने पारंपरिक लोकनृत्य हैं जो या तो बीते कल की बात हो चुके हैं या होने को हैं।
धर्मेश के मुताबिक, पूर्णिमा शाह जैसे लोग भी इस तरह के लोकनृत्यों का डॉक्यूमेंटेशन करने का काम कर रहे हैं। पूर्णिमा अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। लोक नृत्यों खासकर, गरबा की परंपरा को सहेजने की उनकी छटपटाहट का ही नतीजा रहा कि उन्होंने इस पर ‘डांसिंग विद गॉडेस’ नामक डॉक्यूमेंट्री बना डाली। इसमें 10 तरीके के नए-पुराने पारंपरिक गरबा के बारे में बताया गया है। साथ में यह भी कि गुजरात के हर क्षेत्र में गरबा की परंपरा अपने आप में खास होती है। कच्छ के भद्रेश्वर में राजपूत एक खास किस्म का गरबा करते हैं, तलवारों के साथ। इस डांस की जड़ें भी प्राचीन परंपराओं में हैं। राजपूत युद्ध पर जाने से पहले अपनी कुल देवी की आराधना करते हुए यह नृत्य करते थे। इस डांस के असल स्टेप्स जानने वाला एक ही विशेषज्ञ जीवित है। इसके लिए ढोल की वास्तविक थाप देने वाला ढोली भी एक ही है। जामनगर के द्वारका में गूगली ब्राह्मण नवरात्र के दौरान नवदुर्गा के गीत गाते हुए गरबी का जुलूस निकालते हैं। मां दुर्गा के नौ रूपों की आराधना करते हुए भक्त मांड बनाते हैं। यह पिरामिड के जैसा आकार होता है। इसके ऊपरी हिस्से को फूलों से इस तरह सजाया जाता है कि उसके नौ कोण होते हैं। इस डांस के दौरान भक्त संस्कृत में आराधना करने को प्राथमिकता देते हैं।
इसी इलाके में ‘जाला नी जार’ नाम का एक और गरबा होता है। इसमें शिव-शक्ति के विवाह का उत्सव मनाया जाता है। इसमें सैकड़ों युवक छोटे-छोटे चौकोर समूहों में बिना सिले हुए पारंपरिक कपड़े पहनकर करीब साढ़े चार घंटे तक विशेष लय पर नृत्य करते हैं। मेहसाणा के इलाके में औरतें फूलों से सजे हुए मांड को सिर पर रखकर नाचती हैं। पहले यह मांड लकड़ी का होता था। उसे आयोजन के बाद विसर्जित कर दिया जाता था। लेकिन अब धातु का होता है। मांड के बीचों-बीच मां दुर्गा की प्रतिमा होती है। इस डांस को भगवान का शुक्रिया अदा करने का तरीका माना जाता है कि उन्होंने भक्तों को संतान से नवाजा। भावनगर के कोली समाज में घोघा नाम का गरबा होता है। इसकी रफ्तार काफी तेज होती है। साथ ही एक खास स्टेप हमची भी। इसमें कंधों और कूल्हों का मूव कुछ इस तरह होता है जैसे अनाज को कूटा जा रहा हो। यह डांस रांदल मां से जुड़ा हुआ। यह अच्छे स्वास्थ्य और बढ़िया उपज की देवी मानी जाती हैं। ऐसे ही और भी न जानें कितने पारंपरिक लोकनृत्य हैं जो या तो बीते कल की बात हो चुके हैं या होने को हैं।
फंडा यह है कि..
ज्ञान तो ज्ञान है। अगर आप किसी क्षेत्र में खास जानकारी रखते हैं तो उसका स्वागत होता है। होना भी चाहिए।
Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 8th October 2013
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