Wednesday, October 30, 2013

New Generations Maturity Depends On Their Upbringing - Management Funda - N Raghuraman - 30th October 2013

परवरिश पर निर्भर है नई पीढ़ी की मैच्योरिटी

मैनेजमेंट फंडा - एन. रघुरामन 


सुरेश कृष्णन मुंबई के सामाजिक कार्यकर्ता हैं। एक बार जब वे मंदिर से बाहर निकल रहे थे तो उन्हें उनके घर में काम करने वाली पूर्व नौकरानी मिल गई। बोली, ‘मालिक क्या आपने मुझे पहचाना?’ सुरेश ने जवाब दिया, ‘हां निर्मला! कैसी हो? बच्चे कैसे हैं?’ दो साल पहले तक निर्मला उनके घर काम करती थी। लेकिन जब नगर निगम में काम करने वाले उसके पति की मौत हो गई तो उसने काम छोड़ दिया। सुरेश का सवाल सुनकर निर्मला ने हाथ जोड़ लिए। कहने लगी, ‘मालिक मुझे अब तक मेरे पति की मौत का मुआवजा नहीं मिला। लेकिन मुझे आपसे अपनी बेटी रेवती के लिए मदद चाहिए। उसने 10वीं की बोर्ड परीक्षा में 700 में से 675 नंबर लाए हैं। अब वह 11वीं कक्षा में एडमिशन लेना चाहती है। डॉक्टर बनना चाहती है। आप अगर उसे आगे की कक्षा में किसी अच्छे प्राइवेट स्कूल में एडमिशन दिलाने में मदद करें तो बड़ी मेहरबानी होगी।’ उसने बताया कि सभी स्कूल रेवती को लेने के लिए तैयार हैं, लेकिन प्राइवेट स्कूल की फीस भरना उसके बस में नहीं। निर्मला आगे बता रही थी, ‘मैं पांच घरों में काम करके किसी तरह अपनी रसोई चलाती हूं।

Source: New Generations Maturity Depends On Their Upbringing - Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 30th October 2013    

 इतनी फीस भला कैसे भर पाऊंगी। मैं सिर्फ इतना चाहती हूं कि आप स्कूल के लोगों से कह दें कि फीस के लिए वे कुछ दिन इंतजार कर लें।’ सुरेश जानते थे कि शहर के तीन शीर्ष स्कूल फीस कम करने का उनका आग्रह कभी नहीं मानेंगे। फिर भी उन्होंने निर्मला को यकीन दिलाया कि वे कुछ न कुछ जरूर करेंगे। घर पहुंचे तो बाहर ही उन्हें उनकी पत्नी ने बताया कि रेवती दो घंटे से उनका इंतजार कर रही है। सुरेश जैसे ही अंदर आए रेवती ने उठकर उन्हें नमस्ते किया। सुरेश ने उसे अच्छे नंबरों के लिए बधाई दी। सुरेश आगे कुछ कहते इससे पहले ही रेवती बोल पड़ी, ‘अंकल इसीलिए मैं आपसे मिलने आई हूं। मैं अपनी मां को समझा नहीं पा रही हूं। मेरे पापा जब भी मुझे साइकिल से स्कूल छोड़ने जाते थे तो कहते कि मुझे एक दिन डॉक्टर बनना है। लोग अचरज में रह जाते थे कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली कोई बच्ची डॉक्टर कैसे बन सकती है।’ सुरेश ने बीच में टोका, मतलब? रेवती ने कहा, ‘मुझे मेरे सरकारी स्कूल में ही 11वीं में एडमिशन मिल रहा है।

लेकिन मां का मानना है कि प्राइवेट स्कूल में पढ़कर ही मैं अच्छी डॉक्टर बन सकती हूं। मेरे पिता ने सात स्कूली बच्चों को नाले में डूबने से बचाते हुए जान दे दी। यह 2005 की बात है जब मुंबई में 26 जुलाई को तेज बारिश और बाढ़ की हालत बन गई थी। मैं अगर निगम के स्कूल से पढ़कर ही डॉक्टर बनूंगी तो उनकी आत्मा को शांति मिलेगी। लेकिन मेरी मां कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है।’ रेवती की बात अभी खत्म नहीं हुई थी, ‘मैं अपनी मां को जिंदा देखना चाहती हूं। डॉक्टर बनकर उसकी देखभाल करना चाहती हूं। लेकिन उसे लगता है कि मैं पैसे बचाने के लिए अपनी इच्छाओं की कुर्बानी दे रही हूं। लेकिन यह सच नहीं है। मैं यह सब इसलिए कर रही हूं कि क्योंकि मुझे पता है कि सरकारी स्कूल में पढ़कर भी अपने पिता का सपना पूरा कर लूंगी। तो क्या आप अब मेरी मां को समझा पाएंगे कि मैं क्या चाहती हूं?’ कहते-कहते उसकी आवाज भर्रा गई थी। शायद इसीलिए वह किचेन की तरफ चली गई। सुरेश की आंखें भी डबडबा आईं थीं। जैसे ही रेवती अंदर गई उन्होंने झट से जेब से रूमाल निकाला और आंसू पोंछ लिए। वे भौंचक थे कि 15 साल की उम्र में कोई बच्ची इतनी मैच्योर कैसे हो सकती है! विचारों की उधेड़बुन में वे अब रेवती की मां निर्मला को मनाने की तैयारी कर रहे थे।

फंडा यह है कि..

कौन कहता है कि नई पीढ़ी कम मैच्योर है। यह तो सिर्फ एक रेवती की कहानी है। हमारे आसपास ऐसी और न जाने कितनी रेवती होंगी। वे साबित कर रही होंगी कि मैच्योरिटी का ताल्लुक उम्र से कम और पालन-पोषण से ज्यादा है।













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