जुनून ही लेकर जाता है सफलता के रास्ते पर
मैनेजमेंट फंडा - एन. रघुरामन
उसने 1993 में बेलगाम के पॉलीटेक्निक कॉलेज में पढ़ाई बीच में छोड़ी और कम्प्यूटर सीखा। उस समय कम्प्यूटर कोर्स की फीस 23 हजार रुपए थी। नाइट शिफ्ट में ऑटो रिक्शा चलाया। सुबह क्लास अटेंड की। कम्प्यूटर कोर्स करने के बाद भी उसे नौकरी नहीं मिल रही थी। ऐसे में उसने प्रोसॉफ्ट नाम से खुद का व्यापार शुरू किया। वर्ष 2000 में सलीम लंदुर ने एक कम्प्यूटर के साथ छोटा-सा दफ्तर शुरू किया। किराया था-1500 रुपए।
लोगों ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। लेकिन हाई-एंड सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट को लेकर सलीम जुनूनी था। कुछ ही समय में वह रिटेल विक्रेताओं और जान-पहचान वालों के लिए सॉफ्टवेयर बनाने लगा। धीरे-धीरे पहचान भी बनी। पहला बड़ा काम दिया कर्नाटक के स्वास्थ्य विभाग ने। एक जिले के स्वास्थ्य हालात का विश्लेषण करना था। वर्ष 2009 में इलाके में एक जौहरी की हत्या हुई थी। बेंगलुरू के तत्कालीन कमिश्नर राघवेंद्र औरडकर जानते थे कि यदि उन्होंने उस इलाके से हुए फोन कॉल्स की जानकारी जुटा ली तो वे हत्यारे तक पहुंच सकते हैं। लेकिन फोन नंबर लाखों में थे। आंकड़ों के अंबार से काम की जानकारी निकालना टेढ़ी खीर थी। उन्हें एक आईटी पेशेवर चाहिए था, जो जांच में गति लाने के लिए कुछ चुनिंदा नंबर निकालकर दे सके। विप्रो और इन्फोसिस जैसी बड़ी आईटी कंपनियों के लिए यह काफी छोटा काम था। उनके लिए इन्वेस्टमेंट के मुकाबले रिटर्न भी ज्यादा नहीं था। पुलिस के कुछ सूत्रों के जरिए कमिश्नर लंदुर तक पहुंचे।
उन्हें सीडीआर सॉफ्टवेयर बनाने को कहा। वे कॉल डिटेल रिकॉर्ड का एनालिसिस करने के लिए सिस्टम चाहते थे। ऐसा सिस्टम जो बातचीत के तरीके, गतिविधियां, भौगोलिक स्थिति का विश्लेषण करने के साथ ही सोशल नेटवर्किग साइट्स से भी जुड़ा हो, ताकि संदिग्धों के नाम और टेलीफोन नंबरों का पता लग सके। सलीम ने काफी कम समय में यह सॉफ्टवेयर बनाकर तैयार कर दिया। इसकी मदद से जौहरी के हत्यारे पकड़े गए। उसके बाद से अब तक पुलिस इस सॉफ्टवेयर से कई जटिल मामले भी सुलझा चुकी है। उसके सॉफ्टवेयर ने ही 2008 में हुबली में बम ब्लास्ट के पेंडिंग केस को भी सुलझाया। सलीम रातोंरात डीजीपी, फोरेंसिक लैबोरेटरी और अन्य जांच एजेंसियों की नजर में चढ़ गया। उन्होंने उससे अपनी जरूरत के मुताबिक सॉफ्टवेयर बनवाना शुरू किया। चार वर्षो के सतत रिसर्च एंड डेवलपमेंट की बदौलत आज उसके सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर्नाटक के अलावा बिहार, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और गुजरात की पुलिस भी कर रही है। प्रोसॉफ्ट सी5 सीडीआर एनालाइजर का 4.0 वर्जन आ चुका है। यह सॉफ्टवेयर अरबों जानकारियों का विश्लेषण कुछ ही सेकंड में कर लेता है। कॉल्स की जानकारी के साथ ही मोबाइल की टॉवर लोकेशन भी बताता है। इससे संदिग्धों का मूवमेंट भी पता चलता है। पहले सिर्फ कुछ ही पुलिस अधिकारी जांच के लिए सीडीआर का इस्तेमाल करते थे। आज स्थिति बदल गई है। ज्यादातर पुलिसकर्मी हत्यारों को ढूंढने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे उन्हें संदिग्धों का डिजिटल फुटप्रिंट मिलता है। हर टॉवर से होने वाले लाखों फोन कॉल्स में से संदिग्ध तक पहुंचने में मदद मिलती है।
लोगों ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। लेकिन हाई-एंड सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट को लेकर सलीम जुनूनी था। कुछ ही समय में वह रिटेल विक्रेताओं और जान-पहचान वालों के लिए सॉफ्टवेयर बनाने लगा। धीरे-धीरे पहचान भी बनी। पहला बड़ा काम दिया कर्नाटक के स्वास्थ्य विभाग ने। एक जिले के स्वास्थ्य हालात का विश्लेषण करना था। वर्ष 2009 में इलाके में एक जौहरी की हत्या हुई थी। बेंगलुरू के तत्कालीन कमिश्नर राघवेंद्र औरडकर जानते थे कि यदि उन्होंने उस इलाके से हुए फोन कॉल्स की जानकारी जुटा ली तो वे हत्यारे तक पहुंच सकते हैं। लेकिन फोन नंबर लाखों में थे। आंकड़ों के अंबार से काम की जानकारी निकालना टेढ़ी खीर थी। उन्हें एक आईटी पेशेवर चाहिए था, जो जांच में गति लाने के लिए कुछ चुनिंदा नंबर निकालकर दे सके। विप्रो और इन्फोसिस जैसी बड़ी आईटी कंपनियों के लिए यह काफी छोटा काम था। उनके लिए इन्वेस्टमेंट के मुकाबले रिटर्न भी ज्यादा नहीं था। पुलिस के कुछ सूत्रों के जरिए कमिश्नर लंदुर तक पहुंचे।
उन्हें सीडीआर सॉफ्टवेयर बनाने को कहा। वे कॉल डिटेल रिकॉर्ड का एनालिसिस करने के लिए सिस्टम चाहते थे। ऐसा सिस्टम जो बातचीत के तरीके, गतिविधियां, भौगोलिक स्थिति का विश्लेषण करने के साथ ही सोशल नेटवर्किग साइट्स से भी जुड़ा हो, ताकि संदिग्धों के नाम और टेलीफोन नंबरों का पता लग सके। सलीम ने काफी कम समय में यह सॉफ्टवेयर बनाकर तैयार कर दिया। इसकी मदद से जौहरी के हत्यारे पकड़े गए। उसके बाद से अब तक पुलिस इस सॉफ्टवेयर से कई जटिल मामले भी सुलझा चुकी है। उसके सॉफ्टवेयर ने ही 2008 में हुबली में बम ब्लास्ट के पेंडिंग केस को भी सुलझाया। सलीम रातोंरात डीजीपी, फोरेंसिक लैबोरेटरी और अन्य जांच एजेंसियों की नजर में चढ़ गया। उन्होंने उससे अपनी जरूरत के मुताबिक सॉफ्टवेयर बनवाना शुरू किया। चार वर्षो के सतत रिसर्च एंड डेवलपमेंट की बदौलत आज उसके सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर्नाटक के अलावा बिहार, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और गुजरात की पुलिस भी कर रही है। प्रोसॉफ्ट सी5 सीडीआर एनालाइजर का 4.0 वर्जन आ चुका है। यह सॉफ्टवेयर अरबों जानकारियों का विश्लेषण कुछ ही सेकंड में कर लेता है। कॉल्स की जानकारी के साथ ही मोबाइल की टॉवर लोकेशन भी बताता है। इससे संदिग्धों का मूवमेंट भी पता चलता है। पहले सिर्फ कुछ ही पुलिस अधिकारी जांच के लिए सीडीआर का इस्तेमाल करते थे। आज स्थिति बदल गई है। ज्यादातर पुलिसकर्मी हत्यारों को ढूंढने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे उन्हें संदिग्धों का डिजिटल फुटप्रिंट मिलता है। हर टॉवर से होने वाले लाखों फोन कॉल्स में से संदिग्ध तक पहुंचने में मदद मिलती है।
फंडा यह है कि..
यदि आपमें किसी खास क्षेत्र को लेकर जुनून है तो उसे आखिर तक कायम रखें। देखेंगे कि आप सफलता के रास्ते पर चल पड़े हैं। लेकिन ध्यान रहे कि सिर्फ जुनून ही आपको शिखर पर लेकर जा सकता है।
Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 25th October 2013
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