स्वतंत्र सोच और सृजन को अवसर
परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे
विगत वर्ष अधिकांश समय 2014 की बातें होती रहीं, होने वाले चुनाव का आकलन किया जाता रहा, भीषण प्रचार तंत्र ने ऐसे अंधड़ को जन्म दिया मानो 2014 चुनाव के बाद देश का भाग्य बदल जाएगा और नेपथ्य से सफेद घोड़े पर सवार कोई 'अवतार' आ जाएगा। सारांश यह कि 2013 को समाप्त होने के पहले ही बार-बार मारा गया और ऐसा भ्रम रचा गया मानो 2013 कभी कहीं था ही नहीं और हजारों वर्ष प्राचीन भारत की नई कुंडली और पंचांग 2014 में रचा जाएगा। संभवत: यह घृणा तेरह के आंकड़े से है। कई इमारतों में बारह के बाद वाले माले को चौदहवां माला कहते है और लिफ्ट में तेरह का बटन भी नहीं होता। न जाने कैसे और क्यों तेरह को अशुभ मान लिया गया। अमेरिका थर्टीन-द हॉरर नामक फिल्म भी बनी। आम बातचीत में 'तीन तिगाड़ा, तेरह काम बिगाड़ा' जैसे जुमले प्रयुक्त होते हैं। कुछ हवाई जहाजों में तेरह नम्बर की सीट या पंक्ति नहीं होती। जाने कैसे सामूहिक अवचेतन में अंधविश्वास जम जाते है और कमोबेश यही 2013 के साथ भी किया गया। यहां तक कि चार विधानसभाओं को भी 2014 का रिहर्सल बताया गया जबकि इनकी जमा जोड़ सीटें संसद की मात्र 57 सीटों के बराबर होती है परन्तु 2013 में ही दिल्ली में राजनीतिक अजूबा घटा। सन् 2013 में ऐसा कुछ घटा है कि उसे काल्पनिक काल खंड मान लें। इस वर्ष इतने झूठ इतने व्यापक पैमाने पर बोले गए हैं कि सत्य काल्पनिक सा हो गया। इस वर्ष झूठा इतिहास तथा कपोल कल्पित भूगोल भी बखाने गए। 1952 में स्वर्गवासी हुए व्यक्ति को 1930 में ही मरा बताया गया और जाने किसका अर्थीकलश कहां से कौन लाया। इन सब बातों के बीच आम आदमी के दल ने दिल्ली में चमत्कार रचा। जो अरविंद केजरीवाल राजनीतिक मसखरा लग रहा था, उसने शीला दीक्षित को पराजित किया और गैर व्यावहारिक सी लगने वाली बातें और घोषणाएं दिल्ली वालों को सत्य लगीं। दरअसल जिस 2013 को 2014 के चुनावी सामरिक महत्व के कारण गैर मौजूद वर्ष बनाने की कुचेष्टा हो रही थी, उसे अरविंद केजरीवाल और साथियों ने भारतीय राजनीति में एक अजूबा रचकर 2013 की सार्थकता को सिद्ध कर दिया।
Source: Independent Thinking And Creation Of Opportunities - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 1st January 2014
दरअसल इस विजय ने जाति और धर्म के आधार पर वोट डालने की प्रवृति को तोड़ दिया और व्यवसायी घरानों के फंड से ही चुनाव लड़े जाते हैं इस भ्रम को भी तोड़ दिया। सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय राजनीति में 'अवतारी नेतृत्व' की कैद से भी मुक्ति मिली है। अरविंद के गिर्द जरूर आभा मंडल रच गया है परन्तु उसके सभी साथी आम आदमी हैं और अब तक भीड़ का हिस्सा थे। यह ऐसा हुआ मानो जूनियर कलाकार नायक बन जाएं। 'अवतार' से यह मुक्ति किसी वैचारिक धारा में बदल सकेगी इसमें संशय है। गणतंत्र व्यवस्था की सफलता आम आदमी की भागीदारी पर निर्भर करती है। अगर आम आदमी चुनाव में दिए गए सहयोग की 'एवजी वसूली' प्रारंभ कर देगा तो प्रयोग असफल हो जायेगा। अत: आम आदमी की भूमिका चुनाव के बाद समाप्त नहीं होती, सतत निगरानी और सक्रिय भागीदारी आवश्यक होती है।
फिल्म वालों ने पटकथा लेखन की हव्वा बना दिया मानो वह एटोमिक विज्ञान है जबकि वह सरल है। इसी तरह व्यवस्थाओं और सरकारों ने उसके चलाए जाने का हव्वा खड़ा कया है। इतना ही नहीं है सरकारें जान कर आम आदमी को जीवन की साधारण चीजें उपलब्ध नहीं होने देता और उसे 'नोन तेल आटे' की चक्की में पिसने देता है क्योंकि समय मिल जाने पर वह स्वतंत्र सोच विकसित कर सकता है, अपनी सृजन ऊर्जा को जगा सकता है और व्यवस्थाएं हमेशा स्वतंत्र सोच से भय खाती हैं। ऐसा सोच सारे आडम्बर और स्वांग खत्म कर देता है। यही प्रक्रिया कारपोरेट, प्रायवेट कम्पनियों और शिक्षा संस्थाओं में चलती है कि स्वतंत्र सोच विकसित नहीं हो जाये। सृजन और सोच को विकसित नहीं होने पर ही अन्याय आधारित असमानता का साम्राज्य कायम रहता है। यही कारण है कि अमेरिका जैसे सम्पन्न देश में गरीबी समाप्त नहीं होती और कम्यूनिस्ट चीन भी आम आदमी पर दबाव बनाए रखता है।
Source: Independent Thinking And Creation Of Opportunities - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 1st January 2014
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