'ए मेरे वतन के तमाशबीनों....'
परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे
सत्ताईस जनवरी को मुंबई में युद्ध में प्राण देने वाले लोगों की स्मृति में शहीद दिवस आयोजित किया गया और प्रदीप जी का लिखा, सी. रामचंद के संगीत पर लता मंगेशकर के द्वारा पचास वर्ष पूर्व पंडित नेहरू की मौजूदगी में गाए जाने वाले अमर गीत 'ए मेरे वतन के लोगों' की स्वर्ण जयंती मनाई गई और लता जी ने इसे इस बार नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में गाया परंतु नेहरू और इंदिरा जी की स्मृतियों का उल्लेख भी सादर किया। ज्ञातव्य है कि बडऩगर मध्यप्रदेश में जन्मे कवि प्रदीप ने इस गीत की रॉयल्टी सेना द्वारा संचालित उस संस्था के नाम की थी जो शहीदों की विधवाओं की सेवा करती है परंतु अनेक वर्षों तक संगीत कम्पनी ने एक पैसा भी संस्था को नहीं दिया। कवि प्रदीप की पुत्री मितुल ने अदालत में लंबी लड़ाई लड़ी और अदालत ने कम्पनी को आदेश दिया कि सप्ताह भर में रायल्टी की रकम संस्था को दे और आगे भी देता रहा। मितुल के निस्वार्थ प्रयास से मोटी रकम दी गई परंतु बाद के वर्षों का हिसाब संभवत: नहीं दिया गया।
Source: My Country And Its Onlookers - Parde Ke Peeche by Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 29th January 2014
यहां तक कि एक शिखर निर्माता ने इसका प्रयोगवृतचित्र के लिए किया परंतु उसकी रॉयल्टी भी नहीं दी गई। गौरतलब मुद्दा यह है कि सत्ताइस जनवरी के आयोजन में बेहिसाब पैसा खर्च किया गया परंतु भारतीय जनता पार्टी के विधायक आयोजक ने यह विचार कभी नहीं किया कि कवि प्रदीप की रॉयल्टी के एवज में न सही परंतु उनकी स्मृति में चंद करोड़ संस्था को दे दे। यह भी जानकारी नहीं है कि आयोजन में मितुल को आमंत्रित किया गया या नहीं , वे मुंबई में ही रहती हैं और इसी मितुल को उज्जैन का एक सरकारी सहायता प्राप्त पत्रकार वर्षों तंग करता रहा और इसी कॉलम में इस ओर ध्यान दिलाए जाने के बाद उज्जैन के आला पुलिस अफसर ने बेचारी मितुल के सम्मान की रक्षा की।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री या संस्कृति सचिव को भी यह कभी नहीं सूझा कि मध्यप्रदेश में जन्मे कवि प्रदीप की स्मृति को अक्षुण्ण रखने का प्रयास करें या बडऩगर का नाम ही प्रदीप नगर रख दें। युद्ध के शहीदों के लिए स्मारक बनाने का दावा करने वाले लोग स्मारकों पर धन नहीं खर्च करके युद्ध के कारण विधवा स्त्रियों के लिए कुछ करें। जिस देश में रेल लाइन बिछाने के लिए लोहे की कमी है उस देश में विशाल मूर्ति बनाने के लिए लोहे का चंदा किया जा रहा है। क्योंकि मरने वाले के सिद्धांतों को आदर नहीं देकर उनकी मूर्तियां बनाना राष्ट्रीय शगल है और तमाशबीन जनता इसी से प्रसन्न भी होती है।
जिस दौर में यह गीत लता मंगेशकर ने गाया उस दौर में कुछ इस तरह की अफवाहें भी थीं कि किन्ही कतिपय कारणों से अपनी पत्नी की नाराजगी के चलते चितलकर रामचंद्र यह गीत आशा भोंसले से गवाना चाहते थे और संभवत: उनके साथ रिहर्सल भी हुई, फिर सता के गलियारों में कानाफूसी के सांप लहराये और आशा भोंसले को हटाकर लता मंगेशकर जी को गाने को कहा गया। बहरहाल अब उन अफवाहों को क्यों याद करें परंतु यह प्रसन्नता की बात है कि आयोजन में भारत रत्न पुरस्कृत लता मंगेशकर ने सजल नेत्रों से जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा जी के सादर सत्कार और महानता की यादों को दोहराया।
ज्ञातव्य है कि कवि प्रदीप ने 1941 में प्रदर्शित 'किस्मत' के लिए गीत लिखा था 'दूर हटो ये दुनियावालों हिन्दुस्तान हमारा है' और आजादी के लिए संघर्षरत आम जनता सिनेमाघर में इस गीत पर तालियां बजाती थी। प्रदीप जी ने अंग्रेजों के सेंसर से बचने के लिए अंतरों में जापान और जर्मनी की बुराई की थी परंतु उनका मूल उद्देश्य देशप्रेम की भावना को जगाना ही था। उस वक्त के आम दर्शक ने अंतरों पर ध्यान नहीं दिया, केवल राष्ट्रप्रेम के मुखड़े को दोहराया।
प्राय: मुखड़े ही स्मृति में रहते है और सार्थक अंतरे भुला दिये जाते हैं। आम जनता की इस प्रवृति का लाभ राजनैतिक दल उठाकर अपने प्रचार को मुखड़ों की तरह ही गढ़ते है और अपने छिनौने एजेंडा के अंतरे छुपाकर रखते हैं। यह पूरा देश ही मुखड़ा है और इसके अंतरे धरती के भीतर के सतहों में दुबके रहते है।
Source: My Country And Its Onlookers - Parde Ke Peeche by Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 29th January 2014
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