Friday, January 31, 2014

There Is KARNA In All of Us, Who Needs Help - Motivation Management Funda - N Raghuraman - 31st January 2014

सबके भीतर एक कर्ण है, जिसे मदद की जरूरत है


मैनेजमेंट फंडा - एन. रघुरामन 


'महाभारत' महाकाव्य का दृश्य। 'कुरुक्षेत्र के मैदान में कर्ण घायल पड़े हैं, लेकिन उनके दान-पुण्य की वजह से प्राणों ने देह छोडऩे से मना कर दिया है। लहू-लुहान और दर्द से कराह रहे कर्ण की मदद को तब भगवान कृष्ण भिक्षुक के वेष में आकर उनके पूरे पुण्य कर्मों की भिक्षा मांग लेते हैं। कर्ण भी बेझिझक यह दान दे देते हैं और ठीक उसी वक्त प्राण उनका शरीर छोड़ देते हैं।' पर्दा गिरता है। सामने बैठे दर्शक सीटों से खड़े होकर ताली बजाने लगते हैं। केरल और कर्नाटक की सीमा पर मौजूद कुट्टा कस्बे के एक थिएटर का यह दृश्य था। नाटक खत्म होने के बाद भीड़ उस हीरो को घेर लेती है, जिसने कर्ण की भूमिका निभाई थी। काफी देर बाद जब भीड़ छंटी तो मैं भी उससे मिला। वह नाटक मंडली का लीडर था। उसने अपना नाम बताया, 'करथीवरन।' केरल के वायनाड कस्बे का रहने वाला है। हल्की-फुल्की बातचीत के बाद हम दोनों ने एक-दूसरे से विदा ली। 

Source: There Is KARNA In All of Us, Who Needs Help - Motivation Management Funda By 

 अगली सुबह जब मैं सैर के लिए निकला तो करथीवरन भी मिल गया। बस स्टॉप पर खड़ा था। ढेर सारा लगेज साथ था। अचरज की बात ये कि वह कर्ण की वेशभूषा में ही था। मैं एक दोस्त के साथ चाय की दुकान पर बैठा था। तभी दुकान मालिक ने करथीवरन को आवाज लगाई, 'ए कर्ण! एक कप चाय पिओगे।' दुकान पर हमें देखकर उसने हल्की मुस्कराहट बिखेरी। अपने कपड़ों के अंदर शायद बनियान में मौजूद जेब में हाथ डाला। कुछ सिक्के निकाले। गिने और फिर चाय पीने से मना कर दिया। दुकान वाले से झिझकते हुए कहा, 'मैं वायनाड में जाकर चाय पी लूंगा।' दुकानदार ने कहा, 'तुम जानते हो कि कूर्ग की चाय केरल के किसी भी हिस्से से बेहतर होती है।' इससे उस 'कर्ण' ने कहा, 'मेरे पास पैसे नहीं हैं। जितने हैं उतने में घर तक ही पहुंच सकता हूं।' इतना सुनते ही दुकानदार गुस्से में बोला, 'क्या मैंने तुमसे पैसे मांगे हैं?' वह बोले जा रहा था, 'तुम्हें देखने स्टेज के सामने बैठे सब के सब लोग स्वार्थी किस्म के थे। उनको तुमने नाटक के जरिए दोस्ती का धर्म और मर्म समझाया। अपने दोस्त के लिए (कर्ण ने दुर्योधन के लिए) जान दे दी। मैं तुमसे पैसे मांग भी कैसे सकता हूं।' इतना कहते हुए वह करथीवरन के पास पहुंच चुका था। हाथ में चाय का बड़ा प्याला था। साथ में ब्रेड का टुकड़ा भी था। इस वक्त वह दुकानदार कर्ण की भूमिका में था। 

मैं यह सब देख सुन रहा था। मैंने उससे पूछा, 'नाटक से एक बार में तुम्हें कितनी कमाई हो जाती है।' उसने बताया, 'सब ठीक रहा तो 2,000 रुपए मिल जाते हैं। लेकिन अगर नाटक के दौरान ही बिजली चली गई तो जनरेटर चलवाना पड़ता है और कमाई कम हो जाती है।' उसकी बात अभी खत्म नहीं हुई थी। बोला, 'कल की ही बात है। जिस स्कूल में हमने नाटक खेला था, वहां से हमें तयशुदा भुगतान भी नहीं मिला, जबकि हमारे नाटक में काम करने वाले सभी लोगों की आय का यही एक जरिया है। दर्शक के तौर पर मौजूद स्कूल के कर्मचारी अपने वेतन से कुछ कटौती करके हमें पैसे देने को तैयार थे। लेकिन हम लोगों ने मना कर दिया।' मैं समझ चुका था कि इस आदमी के लिए कर्ण सिर्फ स्टेज पर खेला जाने वाला चरित्र नहीं है। उस चरित्र के साथ वह पूरी तरह मिल चुका है। वह बता रहा था, 'असल में मुझे डॉक्टर का भुगतान करने के लिए 1200 रुपए चाहिए। पूरे 12 साल के इंतजार के बाद मेरी पत्नी ने बच्चे को जन्म दिया है। अब पता नहीं कि मैं डॉक्टर का सामना कैसे करूंगा।' 

उसकी आंखों में आंसू थे। हमारी बातें मेरा दोस्त भी सुन रहा था। वह उन लोगों को जानता था जिन्होंने नाटक आयोजित किया था। उसने तुरंत उनको कॉल करके कड़क आवाज में पैसों को लेकर पूछताछ की। दूसरी तरफ सफाई देने के लिए कोई दलील नहीं थी, इसलिए तुरंत उनका एक आदमी वहां आ गया। आयोजकों ने बाकी के पैसे भेजे थे। करथीवरन को उसका बचा हुआ भुगतान मिल गया था। उसने उस व्यक्ति के पैर छुए और खुशी-खुशी बस में बैठ गया। मैंने पहली बार 'कर्ण' को किसी से कुछ लेते हुए देखा। वह भी खुशी से। 


फंडा यह है कि...

कर्ण का चरित्र हम सबके भीतर है। किसी न किसी रूप में। इस चरित्र को हम जितना ज्यादा उभार सकें, उभारना चाहिए। ताकि इस स्वार्थी दुनिया को हम कुछ न कुछ देकर जा सकें। 




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