अनपढ़ के स्टूडियो में साहित्य सभा
परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे
मुंबई में एक साहित्य सभा का आयोजन बांद्रा के महबूब स्टूडियो में किया गया और दूसरे दिन के सत्र का आरंभ करण जौहर के भाषण से हुआ। आजकल प्राय: साहित्य सभाओं में फिल्म वाले को आमंत्रित किया जाता है क्योंकि सभी कार्यक्रमों की सफलता उनके टेलीविजन पर दिखाए जाने पर निर्भर करने लगी हैं और कुछ चेहरे हमेशा मीडिया में सुर्खियों में रहने के जुगाड़ में सफल हैं।
Source: Literature Meet At Illiterates Studio - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 10th December 2013
इस कार्यक्रम के आयोजन में यह बात उभर कर आई है कि साहित्य सभा महबूब खान के द्वारा बनाए गए स्टूडियो में आयोजित है और महबूब खान पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं थे। वे लगभग अंगूठा छाप थे क्योंकि तेरह वर्ष की आयु में गुजरात से भागकर मुंबई आए थे और तारदेव स्थित स्टूडियो में चौकीदारी से प्रारंभ करके सफल फिल्मकार बने और उनकी 'मदर इंडिया' आज भी अनेक फिल्म पाठशालाओं में पढ़ी और पढ़ाई जा रही है तथा इस अनपढ़ फिल्मकार ने अपनी वसीयत इस चतुराई से बनाई है कि उसके वंशज उसे बेच नहीं सकते, केवल उसकी कमाई का लाभ उठा सकते हैं। इस वसीयत के कारण ही तीन-चार एकड़ में बनाया स्टूडियो आज भी सुरक्षित है अन्यथा वहां अनेक मॉल्स और बहुमंजिला सीमेंट का जंगल पसर जाता। अत: यह एक पांरपरिक अर्थ में अनपढ़ व्यक्ति की बुद्धिमानी है कि यह परिसर तथाकथित विकास के जबड़े से बचा हुआ है।
साहित्य सभा में शामिल किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास महबूब खान की तरह सृजनशीलता नहीं है। उस किसान बालक ने महानगर में अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से कीर्तिमान स्थापित किया है। यह भारत का दुर्भाग्य है कि इस देश के बुद्धिजीवी जमीन से जुड़े नहीं हैं और आम आदमी की मजबूरियों और क्षमताओं से परिचित हैं, वे प्राय: स्वयं निर्मित संगमरमरी गुम्बद में सिमट रहे हैं। नेता, संपादक, पत्रकार सभी का यही हाल है। बाजार और विज्ञापन शक्तियों द्वारा रचे गए वैकल्पिक संसार में कैद है प्रतिभा।
करण जौहर ने फिल्मों में प्रस्तुत प्रेम की बात की और स्वीकार किया कि जब भी उन्हें प्यार के बदले प्यार नहीं मिला, उन्होंने अपने वियोग के क्षणों में फिल्मी गीतों का सहारा लिया। दरअसल पुराने फिल्मी गीत अनगिनत लोगों के जीवन का सम्बल रहे है। आज के युवा अपने विरह के क्षणों में दो कैपीचीनो कॉफी पीकर उससे मुक्त हो जाते हैं। जब प्रेम में ही भावना की तीव्रता नहीं है तो उसका विरह भी सतही होगा। दरअसल आज सप्रयास प्रेम में डूबने का फैशन चल पड़ा है। संवेदनहीन युवा जिसके दिलोदिमाग पर अच्छी नौकरी और सुविधाजनक जीवन छाया रहता है, वह भला कैसे प्रेम कर सकता है। जब वह जीना शुरू करेगा तो प्रेम भी करेगा और विरह की वेदना से भी गुजरेगा, अभी तो वह मात्र जीवन के स्वांग को ढो रहा है।
बहरहाल करण जौहर ने स्वयं को असफल प्रेम कहानियों पर बनी फिल्मों का प्रतिनिधि घोषित किया है जबकि अभी तक वे कोई महान प्रेम कहानी पर फिल्म नहीं बना पाए हैं और सुखांत फिल्में बनाते रहे हैं। वे अत्यंत सफल फिल्मकार हैं परन्तु सतही फिल्में ही बनाते रहे हैं और उनकी फिल्मों में प्रस्तुत संसार एक काल्पनिक संसार है जिसमें कोई अभाव, मजबूरी और भूख नहीं है, वे असंतोष के नहीं, मिथ्या संतोष के फिल्मकार हैं। उन्हें आक्रोश का कोई अनुभव भी नहीं है।
इस साहित्य सभा में एक लेखक ने रेखांकित किया है कि बचपन में हमारा अवचेतन सुनी हुई कहानियों, किंवदंतियों और फंतासी से बनता है अर्थात हमारे मानस संसार की रचना यथार्थ से अपरिचित है और सदियों से बोले जा रहे लोकप्रिय झूठ से बना है। एक बार सत्यजीत राय ने किसी और संदर्भ में कहा था कि काल्पनिक और असत्य इतिहास को बांचते-बांचते हम अपना संतुलन ही खो चुके हैं। देश भर में साहित्य सभाएं आयोजित हो रही हैं और पाठकों के अभाव पर कोई चिंता नहीं जता रहा है। लुगदी साहित्य ही बिक रहा है। पलायनवादी पाठक सत्य से रूबरू नहीं होना चाहता। प्रकाशन उद्योग सरकारी खरीद एवं स्वयं लेखक द्वारा खरीदी पर जिंदा है। फिल्म दर्शकों की संख्या हमेशा ही पाठकों से अधिक रही है, अत: साहित्य सभा का आयोजन स्टूडियो में ही होना है और फिल्मकार का प्रमुख अतिथि होना भी लाजिमी है।
साहित्य सभा में शामिल किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास महबूब खान की तरह सृजनशीलता नहीं है। उस किसान बालक ने महानगर में अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से कीर्तिमान स्थापित किया है। यह भारत का दुर्भाग्य है कि इस देश के बुद्धिजीवी जमीन से जुड़े नहीं हैं और आम आदमी की मजबूरियों और क्षमताओं से परिचित हैं, वे प्राय: स्वयं निर्मित संगमरमरी गुम्बद में सिमट रहे हैं। नेता, संपादक, पत्रकार सभी का यही हाल है। बाजार और विज्ञापन शक्तियों द्वारा रचे गए वैकल्पिक संसार में कैद है प्रतिभा।
करण जौहर ने फिल्मों में प्रस्तुत प्रेम की बात की और स्वीकार किया कि जब भी उन्हें प्यार के बदले प्यार नहीं मिला, उन्होंने अपने वियोग के क्षणों में फिल्मी गीतों का सहारा लिया। दरअसल पुराने फिल्मी गीत अनगिनत लोगों के जीवन का सम्बल रहे है। आज के युवा अपने विरह के क्षणों में दो कैपीचीनो कॉफी पीकर उससे मुक्त हो जाते हैं। जब प्रेम में ही भावना की तीव्रता नहीं है तो उसका विरह भी सतही होगा। दरअसल आज सप्रयास प्रेम में डूबने का फैशन चल पड़ा है। संवेदनहीन युवा जिसके दिलोदिमाग पर अच्छी नौकरी और सुविधाजनक जीवन छाया रहता है, वह भला कैसे प्रेम कर सकता है। जब वह जीना शुरू करेगा तो प्रेम भी करेगा और विरह की वेदना से भी गुजरेगा, अभी तो वह मात्र जीवन के स्वांग को ढो रहा है।
बहरहाल करण जौहर ने स्वयं को असफल प्रेम कहानियों पर बनी फिल्मों का प्रतिनिधि घोषित किया है जबकि अभी तक वे कोई महान प्रेम कहानी पर फिल्म नहीं बना पाए हैं और सुखांत फिल्में बनाते रहे हैं। वे अत्यंत सफल फिल्मकार हैं परन्तु सतही फिल्में ही बनाते रहे हैं और उनकी फिल्मों में प्रस्तुत संसार एक काल्पनिक संसार है जिसमें कोई अभाव, मजबूरी और भूख नहीं है, वे असंतोष के नहीं, मिथ्या संतोष के फिल्मकार हैं। उन्हें आक्रोश का कोई अनुभव भी नहीं है।
इस साहित्य सभा में एक लेखक ने रेखांकित किया है कि बचपन में हमारा अवचेतन सुनी हुई कहानियों, किंवदंतियों और फंतासी से बनता है अर्थात हमारे मानस संसार की रचना यथार्थ से अपरिचित है और सदियों से बोले जा रहे लोकप्रिय झूठ से बना है। एक बार सत्यजीत राय ने किसी और संदर्भ में कहा था कि काल्पनिक और असत्य इतिहास को बांचते-बांचते हम अपना संतुलन ही खो चुके हैं। देश भर में साहित्य सभाएं आयोजित हो रही हैं और पाठकों के अभाव पर कोई चिंता नहीं जता रहा है। लुगदी साहित्य ही बिक रहा है। पलायनवादी पाठक सत्य से रूबरू नहीं होना चाहता। प्रकाशन उद्योग सरकारी खरीद एवं स्वयं लेखक द्वारा खरीदी पर जिंदा है। फिल्म दर्शकों की संख्या हमेशा ही पाठकों से अधिक रही है, अत: साहित्य सभा का आयोजन स्टूडियो में ही होना है और फिल्मकार का प्रमुख अतिथि होना भी लाजिमी है।
एक्स्ट्रा शॉट...
करण जौहर ने महज २५ वर्ष की उम्र में निर्देशन की दुनिया में कदम रखा था। उनकी निर्देशित पहली फ़िल्म थी शाहरुख़ खान अभिनित " कुछ कुछ होता है". करण ने इस फ़िल्म की कहानी भी खुद ही लिखी थी।
Source: Literature Meet At Illiterates Studio - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 10th December 2013
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