फिल्मी लेखकों के अंदाजे बयां
परदे के पीछे - जयप्रकाश चौकसे
हर फिल्म की कथा-पटकथा फिल्म बनने के पहले सितारों, तकनीशियनों,संगीतकार, कैमरामैन, इत्यादि लोगों को सुनाई जाती है और इस तरह पचास बार सुनाई पटकथा में नुक्स किसी को नजर नहीं आते और प्रदर्शन के बाद कमियां ही उभरकर आती हैं। हर फिल्म की कुछ दिनों की रीशूटिंग जरूर होती है गोया कि कोई कमी नजर आई और उसे दूर करने का प्रयास हुआ। पटकथा लेखन सिखाने वालों ने अपने धंधे को कायम रखने के लिए पटकथा लेखन का हव्वा खड़ा कर दिया है मानो वह एटम बम बनाने का तरीका हो या मिट्टी से सोना बनाने का कीमिया है। संपादक सबसे अधिक बार हर दृश्य को देखता है तो क्या उसे दोष नजर नहीं आते।
Source: Varied Expressions Of Film Writers - Parde Ke Peeche By Jaiprakash Chouksey - Dainik Bhaskar 12th December 2013
दशकों से फिल्म निर्माण में अनुभवी लोगों को भी शूटिंग के पहले पटकथा में कमियां नजर नहीं आतीं। तकनीशियन तो काम पाना चाहते हैं, अत: कमियों के बारे में बात नहीं करते परन्तु सितारों के पास काम की कमी नहीं है। क्या उन्हें कमियां नजर नहीं आती? सत्यजीत राय की पटकथा में शॉट्स के रेखा चित्र बने होते थे और वे शूटिंग के पहले ही जानते थे कि शूट किया दृश्य कैसा लगने वाला है। क्या पटकथा पर आधारित अमर चित्र कथा की तरह दृश्यों का आकल्पन तैयार नहीं किया जा सकता ? विज्ञापन फिल्मों में स्टोरी बोर्ड होता है जिसमें हर शॉट का स्केच होता है। हर कथा-पटकथा लेखक अपने अंदाज से सुनाता है और कुछ लोग सुनाने की कला में इतने माहिर होते हैं कि उनके श्रीमुख से बोगस कथा भी रोचक लगती है। अबरार अल्वी अपनी पटकथा को टेप रिकॉर्ड करते थे और चार कैसेट में फिल्म संवाद सहित सुनी जा सकती थी। पंडित मुखराम शर्मा संभवत: पहले लेखक थे जो पूरी पटकथा संपूर्ण बारीकियों के साथ लिखकर देते थे परन्तु कभी सुनाते नहीं थे। मुश्ताक जलीली साहब का अंदाज रोचक होता था और कौन सा कलाकार कौन सी भूमिका करेगा, अपने सारे विकल्पों के साथ सुनाते थे। मसलन वे कहते कि नवाब साहब दरवाजा खोलते हैं, आप चाहें तो अशोक कुमार को लें और बजट कम हो तो इफ्तिखार को लें। इसी तरह वे एक्शन दृश्य में घोड़ों की संख्या भी बजट के अनुरुप बदलते थे।
फिल्मकार मनमोहन देसाई का अंदाज सबसे जुदा था। पहले वे ब्लैक बोर्ड पर लोकेशन का मानचित्र बनाते थे कि कहां हवेली हैं, कहां जंगल है, कहां नदी है। पटकथा सुनाते समय देसाई साहब हर पात्र के बोलने के अंदाज के साथ सुनाते थे और महत्वपूर्ण नाटकीय दृश्य उनका एक सहायक टेप रिकॉर्ड पर बजाता था। उनके साथ कम से कम तीन सहायक अलग से टेप रिकार्डर के साथ बैठे होते थे और अपनी बारी आने पर स्विच ऑन करते थे। भावना के दृश्य में देसाई के नेत्रों से अश्रु बहने लगते थे। वे पूरी तरह रमकर कथा सुनाते थे। अब्बास मस्तान मूल हॉलीवुड के डीवीडी को उसमें उनके किए गए भारतीयकरण के पैंतरे से तैयारी करते हैं। उनको मौलिक पटकथा से परहेज है। राजकुमार संतोषी बहुत ही प्रभावोत्पादक ढंग से पटकथा सुनाते हैं। कुछ फिल्मकार ऐसे भी हैं जो फिल्म आधी बनने के बाद उसके नुक्स देख लेते हैं और निर्माता तथा सितारों को विश्वास दिला देते हैं कि इन आवश्यक परिवर्तन से बात बन जायेगी। वे नया लिखने के अतिरिक्त समय और धन लेते हैं जबकि हकीकत यह है कि यह दूसरा संस्करण उनके पास पहले से मौजूद था। फिल्म शूटिंग के समय सितारे संवाद बदलते हैं। उन्हें जिन संवादों की अदायगी में कष्ट होता है, उसे वे अपनी सुविधा अनुसार बदल देते हैं।
दरअसल फिल्म निर्माण की प्रक्रिया कुछ ऐसी है कि समर्थ व्यक्ति का विचार सबको मान्य होता है। यहां सफल व्यक्ति के मुंह से निकली बात ही अंतिम सत्य है। फिल्में जिस बेतरतीब ढंग से बनती हैं , कमोबेश उसी बेढंगे ढंग से देश भी चलाया जा रहा है। सारे दलों के प्रमुख नेता देश की पटकथा को अपने अंदाज से सुना रहे हैं, जैसे हॉलीवुड की फिल्मों की नकल होती है, वैसे अमेरिका से आयात किया विकास का मॉडल प्रचारित है। किसी भी राष्ट्रीय कथा वाचक की रूचि व्याधि को जड़ से समाप्त करने में नहीं है, सभी नीमहकीमों के पास लाक्षणिक इलाज है, कोई भी कड़वा कुनैन जनता को नहीं देना चाहता। सारा मामला कुछ ऐसा है कि जितना च्वयनप्राश बाजार में उपलब्ध है उतना आंवला देश में पैदा नहीं होता। हर क्षेत्र में सारे कथा वाचक वीं सुना रहे हैं जो श्रोता को पसंद है। सत्ता की दुल्हन वही जो मतदाता मन भाये।
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